अच्छे नहीं लगते
जाने हों,अनजाने, अच्छे नहीं लगते ।।
बिना वजह ताने, अच्छे नहीं लगते ।।
यादों की शहनाइयां बजती हों उनकी दिल में,
तब बुलबुल के तराने,अच्छे नहीं लगते ।।
लबों से नहीं दिल से होता था ख़ैर मक्दम,
बदले हुए जमाने,अच्छे नहीं लगते ।।
फँस जाये जिंदगी में,गर कभी मुकद्दर तो
फिर दुनिया के फॅंसाने, अच्छे नहीं लगते ।।
आजादी तरणताल की जब से है मिली उसको
‘जानू’ को गुसलखाने, अच्छे नहीं लगते ।।
अपनेपन वाली अच्छी लगती है हर शरारत,
कपटी , कुटिल सयाने,अच्छे नहीं लगते ।।
परदेश में जब मां की याद सताती है तो,
‘सेवन स्टार’ के खाने,अच्छे नहीं लगते।
— सुरेश मिश्र