उत्तम क्षमा : क्षमा मांगना और क्षमा करना
क्षमा का अर्थ है माफ करना अथवा माफी देना। सच्ची क्षमा का आशय यह है कि हमारे मन में ऐसी समता की भावना जागृत हो कि मैं किसी का अनिष्ट न करुँ, न हीं ऐसा करने की सोचूँ और न किसी दूसरे की बुराई में रस लूँ। कदाचित् हँसी-मजाक में, प्रमादवश, जान-बूझकर या उत्तेजनावश ऐसा हो भी जाए तो मुझे उसका पश्चात्ताप हो और इस हेतु मैं सरल हृदय से क्षमायाचना कर सकूँ। मेरे व्यवहार से भी किसी को दुःखी होने का अवसर न मिले। मेरे सद्-व्यवहार के बावजूद भी किसी भ्रांतिवश सामने वाला यदि कुपित हो जाए, मेरा अनिष्ट करना चाहे तो भी मुझे क्रोध न आए, मेरी भावना हमेशा क्षमा की ही रहे।
हम मानव है, स्वभाविक है कि हमसे भी भूल हो सकती है। यदि हम गलती न करें तो क्या हम भगवान नहीं बन जायेंगे? हमारे से भी कभी अनजाने में, कभी आदतवष तो कभी अहंकारवष भूलंे होती ही रहती है। परन्तु वे भूलें शूल बनकर हमारे हृदय में न चुभे, अन्तर में वैर की गाँठे न बंधे। बाहर की गाँठे तो एक जन्म का ही अंत करती है पर आन्तरिक वैर की गाँठे हमारे कई जन्मों को बिगाड़ देती है। जैसे कंकड़ के एक ही प्रहार से कांच के टुकड़े हो जाते है, कटु शब्दों के प्रहार से हृदय के टुकड़े हो जाते है। यदि हमारे कार्यो से, क्रियाओं से किसी को दुःख पहुँचे या किसी का अपमान हो जाए तो हमें तुरन्त ही उससे क्षमा मांग लेनी चाहिये। गलती करके क्षमा मांगने वाला और दूसरों की गलतियों को क्षमा करने वाला मनुष्य ही महान् होता है। दोषी व्यक्ति को दण्डित करने पर उसमें प्रतिकार की भावना जन्म लेती है। जब व्यक्ति को अपने द्वारा कि गई किसी भी भूल का अहसास होता है तब उसका हृदय परिवर्त्तित हो जाता है।
आगम शास्त्रों में बताया गया है कि क्षमा कायरों का नहीं वीरों का भूषण है। क्षमा मानव को सहनषील बनाती है। जो व्यक्ति सर्व सम्पन्न व शक्तिषाली होने पर भी क्रोध नहीं करता। कुछ गलत सुन भी लें तो उसका भी उत्तर मीठी मुस्कान से देता है। उफान व तूफान के समय भी जो चट्टान की तरह शान्त रहता है वह व्यक्ति ही सच्चा वीर एवं क्षमाषील है।
क्षमा का सम्बन्ध अन्तःकरण से होता है। क्षमा के अभाव में मनुष्य का मन व्याकुल रहता है, उसकी नींद समाप्त हो जाती है। ऐसा माना जाता है कि क्षमा रहित मन अपराधी होकर हमारी उन्नति में बाधक हो जाता है। क्षमा न मांगना और क्षमा न करना दोनों ही स्थितियों में बैचेनी, दुःख, चिंता, तनाव, व्यर्थ चिंतन, अनिद्रा, परदोष दर्षन आदि विकार हमारे भीतर में इकट्ठे होते जायेंगे। मृत्यु के समय पर भी वहीं स्मृतियाँ हमें बार-बार याद आयेंगी। यदि उन क्षणों में हमें मौत आ भी जाती है तो हमारा अगला जन्म भी दुःखों से परिपूर्ण होगा। अतः क्षमा करना व क्षमा मांगना दोनों जरूरी है। वास्तव में क्षमा ही धर्म, सत्य, दान, यष एवं स्वर्ग की सीढ़ी है। क्षमा मन को निर्मल करती है और मनुष्य में गुणों का संचार करती है।
जो मनुष्य दूसरों को क्षमा नहीं कर सकता, वह अपने आपको भी क्षमा नहीं कर सकता। एक बात और यहाँ पर कहना आवश्यक है कि हमें दूसरों के अलावा अपने आपको भी माफ करना जरूरी है। क्योंकि हमसे भी अक्सर गलतियाँ हो जाती है। स्वयं द्वारा कृत गलतियों से हम कभी-कभी अपराध और आत्मग्लानि के बोझ से कुण्ठित हो जाते हैं। इसलिए उस गलती को ना दोहराने का प्रण लेते हुए स्वयं को भी माफ कर देना चाहिए। ऐसी क्षमा ही उत्तम क्षमा हैं।
कोई क्षमा करेगा या नहीं ऐसे विचारों को अपने दिल से निकालकर जो व्यक्ति अपने प्रतिद्वंद्वी या शत्रु के समक्ष स्वयं उपस्थित होकर सरल हृदय से क्षमा मांग लेता है, वहीं विनम्र और क्षमाशील कहलाता है। क्योंकि हमारा मन दूसरे के दोषों एवं भूलों को शीघ्र भूलने को तैयार नहीं होता। इसलिए वाणी द्वारा हुए घावों को भरने के लिये एवं टूटे हुए दिलों को जोड़ने के लिए सिर्फ एक ही उपाय है, और वह है- ‘क्षमा’।
— राजीव नेपालिया (माथुर)