ग़ज़ल
कुछ सवालों की बात रहने दे।
बंद तालों की बात रहने दे।
ज़िक्र छेड़ा है गर वफ़ाओं का,
छोड़, छालों की बात रहने दे।
रहनुमा से तू माँग ले कुछ भी,
बस निवालों की बात रहने दे।
जो न पहुँचे मेरी निगाहों तक,
उन उजालों की बात रहने दे।
मोमबत्ती तो थाम ले बेशक,
पर मशालों की बात रहने दे।
घर में ही चोर छिपा बैठा है,
द्वारपालों की बात रहने दे।
अब ज़ुबानें ही बींध देती हैं,
तेज़ भालों की बात रहने दे।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’