लघुकथा

कंक्रीट जंगल

“कंक्रीट जंगल में कैसे रहें? कैसे लहलहायेगी मेरी डालियां?”

” न तो देखभाल करने के लिए किसी के पास समय है, न ही कोई  पानी पिलानेवाला। एक अकेला, मैं बेचारा भूखा-प्यासा कब तक रहूं?”

” कल ही कुछ लोग आये थे कुल्हाड़ी लेकर। मशीन के साथ रहते रहते इंसान संवेदनाहीन हो गया है। काटकर मेरे अंग प्रत्यंग, खुद अपना अपकार कर रहा है।”

” कब समझेगा नादान मानव परोपकारी वृक्ष तोड़कर वह अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार रहा है। सुना है, आजकल पानी.के साथ हवा भी बिक रही है। महामारी की चपेट में आये कितने लोगों दम तोड दिया।

कितनों को प्राणवायु नहीं मिल पाया। और तो और लालची इंसान ने दवा ई, पानी, जीवन दाता वायु की कालाबाजारी कर लाखों की हेराफेरी की। कितना गिर गया है इंसान। सत्यवान का मुखौटा ओढ, हरिश्चंद्र सा दानवीर बना घुमता है। पेड पौधे लगाता है, फोटो.सेशन करता है, अखबार की सुर्खियों में उंची उपाधियां पाता है। कभी आकर थोडासा जल भी पिलाता है कभी?

नहीं, नहीं, यह कंक्रीट जंगल, संवेदनाहीन शहर में हमें नहीं रहना। अकेला ही मैं गाँव की ओर चल पडा हूं। बहुत याद आ रही है मुझे गाँव की। यहां सुखकर कांटा हो गया हूं मैं। गाँव की ताजी हवा, प्रदूषण मुक्त पर्यावरण में खुराक पाकर लहलहाऊंगा मैं। हराभरा, खिला खिला रूप-रग होगा मेरा। शहर में कोई  बच्चा पास भी नहीं आता। सुना है शहरी बालक मोबाइल से बहुत प्यार करता है। माँ बाप को वृध्दाश्रम  में भेज देते है तो मेरी सुनवाई  कौन करेगा? मैं और मेरा गाँव ही भला। दिन भर पों पों की आवाज, काला काला धुंआ डरावना लगता है मुझे। पंछी की मधुर कलरव, कोयल की मीठी कूक, मेरी पूजा करते भोले-भाले ग्रामीण लोग। इतना सुख, सखा, शुभचिंतक  शहर में कहां? “मैं तो चला, जहां मेरे घनेरे पेड मित्र हो। जीव जानवर हो। जीवंतता का एहसास हो।”

” नहीं, नहीं, पेड तुम हमें छोडकर मत जाओ। हम बच्चे ढेर सारे पेड पौधे लगायेंगे। हरियाली की मखमल बिछा देंगे। पक्का वादा हमारा।” नींद में मैं जोर-जोर से चिल्ला रहा था। अधखिली आंखें मसलते खिडकी से बाहर देखा, गुलमोहर का वृक्ष अपनी बांहें फैलाये डोल रहा था। चैन की सांस ली मैंने। भागकर गुलमोहर से लिपट गया।

*चंचल जैन

मुलुंड,मुंबई ४०००७८