ग़ज़ल
ग़ज़ल का निचोड़ मेरे मतले में।
इक समन्दर आ गया है क़तरे में।
वक़्त लगने से ही यह फिर खुलती हैं,
गुंझलें ही गुंझलें है मसले में।
ठेल मत बेड़ी चढ़े दरियाओं में,
कौन जाएगा भला इस खतरे में।
क्या छुपाते हो नज़र तो आती है,
किस की है तस्वीर तेरे गजरे में।
अब भी मेरे देश के निर्धन बच्चे,
ज़िदगी को ढूँढते हैं कचरे में।
दूर तक आंसू के क़तरे दिख रहे,
कौन दीपक रख गया है रस्ते में।
ज़िंदगी को प्यार से श्रृंगार लो,
कर रहा बालम बयां मकते में।
— बलविंदर बालम