कविता – नाराज़गी की उम्र
नाराज़गी के खेल में परहेज़ रहे,
उम्र इसकी लम्बी न हो।
मौतें कब आ जाएगी,
इस बात का इल्म रहे।
इस दरम्यान हमें औरों का,
यहां अहसास दिखे।
मुश्किल वक्त में अपने ही,
सब अपने- पराए आसपास दिखें।
इस मंजर को याद कर,
नाराज़गी ज़ाहिर न हो।
मौत कब आ जाएगी,
इस कारण कुछ तो नजरंदाज करे।
नाराज़गी ज़ाहिर है तो,
जिंदगी की खुशियां खत्म हो जाती है।
सफ़र इधर-उधर रहने पर,
उम्मीदों पर पानी फिरने की,
माहौल बन जाती है।
मरना -जीना तो बस एक दस्तूर है,
कहां है इसपर ज़ोर किसी का यहां।
तनहा मेरी हो या लोगों की,
सबमें बस एक ही रंग दिखता है वहां।
हरेक मोड़ पर आकर रुक जाना,
आगे बढ़ने में तरोताजा महसूस कराती है।
उम्मीद बनाएं रखने में,
एक मजबूत साथी बनकर,
बड़ी हौसला बढाती है।
चन्द दिनों की खुशियां,
यूं ही न बिखेर सकते हैं हम।
यही दरियादिली दिखाई देती है,
सबको तो दुनिया से जाना है एक दिन,
तो फिर क्यों इतनी जद्दोजहद,
हम सब करते यहां हम।
— डॉ. अशोक, पटना