पारिवारिक कर्तव्य के रूप में पितृ ऋण से मुक्ति पाने का माध्यम हैं श्राद्ध
श्राद्ध भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है। इसे पितरों (पूर्वजों) की आत्मा की शांति और संतुष्टि के लिए किया जाता है। श्राद्ध संस्कार का उल्लेख प्राचीन हिंदू धर्मग्रंथों जैसे कि वेद, पुराण, और स्मृतियों में किया गया है। इसे एक पारिवारिक कर्तव्य के रूप में देखा जाता है, जो पितृ ऋण से मुक्ति पाने का माध्यम है। ।वैसे तो पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध कर्म के लिए भारत में कई जगहें हैं लेकिन फल्गु नदी के तट पर स्थित गया शहर का अपना विशेष महत्व है। वायु पुराण, गरुड़ पुराण और विष्णु पुराण में भी गया शहर का महत्व बताया गया है। इस तीर्थ पर पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिए गया को मोक्ष की भूमि अर्थात मोक्ष स्थली कहा जाता है। गया शहर में हर साल पितृपक्ष के दौरान एक बड़ा मेला लगता है, जिसे पितृपक्ष का मेला भी कहा जाता है। गया शहर हिंदुओं के साथ साथ बौद्ध धर्म के लिए भी पवित्र स्थल है । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, सर्वपितृ अमावस्या के दिन गया में पिंडदान करने से 108 कुल और 7 पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है और पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। साथ ही पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है इसलिए इस स्थान को मोक्ष स्थली कहा जाता है। पुराणों में बताया गया है कि प्राचीन शहर गया में भगवान विष्णु स्वयं पितृदेव के रूप में निवास करते हैं।गया के बारे में एक पौराणिक कथा के अनुसार गया में गयासुर नामक एक असुर ने कड़ी तपस्या की थी और ब्रह्माजी से वरदान मांगा था। गयासुर ने ब्रह्माजी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन कर पाप मुक्त हो जाएं। इस वरदान के बाद लोगों में भय खत्म हो गया और पाप करने लगे।।बड़े बड़े पापी भी स्वर्ग पहुंचने लगे। पाप करने के बाद वह गयासुर के दर्शन करते और पाप मुक्त हो जाते थे। ऐसा होने से स्वर्ग और नरक का संतुलन बिगड़ने लगा। इन सबसे बचने के लिए देवतागण गयासुर के पास पहुंचे और यज्ञ के लिए पवित्र स्थान की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर ही देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया और कहा कि आप मेरे ऊपर ही यज्ञ करें। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया और यही पांच कोस आगे चलकर गया बन गया। गयासुर के पुण्य प्रभाव से वह स्थान तीर्थ के रूप में जाना गया। गया में पहले विविध नामों से 360 वेदियां थी लेकिन अब केवल 48 ही शेष बची हैं। गया में भगवान विष्णु गदाधर के रूप में विराजमान हैं। गयासुर के विशुद्ध शरीर में ब्रह्मा, जनार्दन, शिव तथा प्रपितामह निवास करते हैं। इसलिए पिंडदान व श्राद्ध कर्म के लिए इस स्थान को उत्तम माना गया है।हिंदू धर्म में मान्यता है कि हर व्यक्ति पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं—देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। श्राद्ध कर्म पितृ ऋण से मुक्ति का एक महत्वपूर्ण साधन माना जाता है। कोई नहीं बता सकता कि इसमें कितनी सच्चाई है अथवा इसे करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और वे मोक्ष की ओर अग्रसर होते हैं,लेकिन हिन्दू धर्म में इसे किये बिना पितरों की मुक्ति नहीं हो सकती ऐसा माना जाता है।अत्रिसंहिता के अनुसार ‘पुत्र, भाई, पौत्र (पोता), अथवा दौहित्र यदि पितृकार्य में अर्थात् श्राद्धानुष्ठान में संलग्न रहें तो अवश्य ही परमगति को प्राप्त करते हैं।पितृ पक्ष में 16 दिनों तक श्राद्ध कर्म होते हैं। ऐसा माना जाता है कि जिस परिवार में किसी सदस्य का देहांत हो चुका है उन्हें मृत्यु के बाद जब तक नया जीवन नहीं मिल जाता तब तक वे सूक्ष्म लोक में वास करते है। ऐसा विश्वास है कि जो व्यक्ति श्राद्ध का आयोजन करता है, उसके परिवार में समृद्धि और शांति बनी रहती है। इसके विपरीत, जो श्राद्ध नहीं करते, उन्हें पितृ दोष का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप परिवार में आर्थिक, मानसिक और शारीरिक समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।श्राद्ध करना एक धार्मिक कर्तव्य भी है, जो हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है। यह हमारे पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करने का एक तरीका है, और इससे हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर की सुरक्षा और उसे आगे बढ़ाने का अवसर मिलता है। श्राद्ध से जीवित व्यक्ति और उसके पूर्वजों के बीच एक आध्यात्मिक संबंध स्थापित होता है। यह अनुष्ठान उस कड़ी को मजबूत करता है, जो पितरों और उनके वंशजों के बीच होती है। पुराने समय में श्राद्ध को बहुत साधारण तरीके से किया जाता था क्योंकि सबके पास संसाधनों का अभाव होता था लेकिन अपनी सामर्थ्य के अनुसार सभी लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते थे।आजकल देखादेखी में श्राद्ध का तरीका बदल गया है।दिखावा अधिक हो गया है। ऐसा भी देखा गया है कि जीते जी माता पिता की सेवा नहीं की जाती तथा उनको सम्मानित ज़िन्दगी जीने से वंचित रखा जाता है लेकिन मरने के बाद लोक लाज के लिए तथा दिखावे के लिए लोगों को बुलाकर श्राद्ध किया जाता है।पुराने समय में श्राद्ध को सामूहिक भोज का आयोजन न करके केवल कुछ ब्राह्मणों को तथा जिसका श्राद्ध होता था उसके साथियों को व दोस्तों को बुलाकर भोजन करवाया जाता था तथा कौओं को भी दूध,चावल व खीर आदि परोसी जाती थी।।उसके साथियों या दोस्तों को बुलाने के पीछे केवल उसके साथ जुड़ाव व आत्मीयता ही होती थी जिनके शामिल होने से उसके साथ बिताए पलों के स्मरण करके दिवंगत को श्रंद्धांजलि हो जाती थी।उसके साथ बिताए पलों के संस्मरण भी याद के रूप में ताजा हो जाते थे।उस समय श्राद्ध के दिनों में कौवे बहुत संख्या में घरों के आसपास आकर अपना भोजन ग्रहण करते थे लेकिन आज हम अपने गांवों में देखते हैं कि श्राद्ध के दिनीं में भी कौवे बहुत कम नज़र आते हैं।
श्राद्ध के लिए एक पवित्र और शांतिपूर्ण स्थान का चयन किया जाता है। इसे किसी भी दिन किया जा सकता है, लेकिन पितृ पक्ष (अश्विन मास के कृष्ण पक्ष) का समय विशेष रूप से शुभ माना जाता है। इस दिन ब्राह्मण या आचार्य को आमंत्रित किया जाता है, जो श्राद्ध की प्रक्रिया को संपन्न करता है।श्राद्ध का पहला चरण तर्पण होता है। इसमें व्यक्ति अपने पितरों को जल अर्पित करता है। यह प्रक्रिया विशेष मंत्रों के साथ संपन्न होती है। जल में काले तिल, दूध, और कुशा (एक पवित्र घास) मिलाकर पितरों को अर्पित किया जाता है। तर्पण के दौरान, व्यक्ति का मुख दक्षिण दिशा की ओर होना चाहिए, क्योंकि इसे यम की दिशा माना जाता है। तर्पण के बाद पिंडदान किया जाता है। इसमें चावल, जौ, तिल, घी, और शहद के मिश्रण से बने पिंड (गोलाकार आटे के गोले) बनाए जाते हैं और पितरों को अर्पित किए जाते हैं। पिंडदान का उद्देश्य पितरों की भूख को शांत करना और उन्हें तृप्ति प्रदान करना होता है। पिंडदान के समय भी विशेष मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।पिंडदान के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है। यह भोजन सात्विक,साफ सुथरा और शुद्ध होना चाहिए। भोजन के साथ-साथ ब्राह्मणों को वस्त्र, अनाज, और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान की जाती हैं। यह दान पितरों की आत्मा को संतोष और शांति प्रदान करता है। ब्राह्मण भोजन के बाद पितरों की आत्मा की शांति के लिए हवन किया जाता है। इस हवन में घी, तिल, जौ, और समिधा (विशेष प्रकार की लकड़ी) का प्रयोग होता है। हवन का धुआं पवित्र और शुद्ध होता है, जो पितरों की आत्मा तक पहुंचता है और उन्हें संतुष्टि प्रदान करता है ऐसा माना जाता है।
श्राद्ध कर्मकांड के बाद, परिवार के सभी सदस्य एक साथ भोजन करते हैं। इस भोजन को पवित्र और संतुष्टि से भरा माना जाता है, क्योंकि इसे पितरों के आशीर्वाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। श्राद्ध कई प्रकार से किये जाते हैं।नित्य श्राद्ध:-यह श्राद्ध का एक प्रकार है जो नियमित रूप से किसी विशेष दिन पर किया जाता है। इसे वार्षिक श्राद्ध भी कहा जाता है। यह उस दिन किया जाता है जिस दिन पितर का निधन हुआ था। पार्वण श्राद्ध:-इसे पितृ पक्ष में किया जाता है, जो अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में आता है। यह श्राद्ध 15 दिन तक चलता है और इसमें सभी पितरों के लिए श्राद्ध कर्मकांड किए जाते हैं।एकोद्दिष्ट श्राद्ध:-यह श्राद्ध एक विशेष पितर के लिए किया जाता है, जो हाल ही में दिवंगत हुआ हो। इसे उसकी मृत्यु के बाद के पहले साल में किया जाता है।सपिंडीकरण श्राद्ध:- यह श्राद्ध विशेष रूप से माता-पिता की मृत्यु के बाद किया जाता है, जिसमें उनकी आत्मा को अन्य पितरों के साथ मिलाया जाता है।
श्राद्ध केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह हमारे पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान व्यक्त करने का एक तरीका है। यह हमें हमारे पितरों के साथ जुड़े रहने और उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रयासरत रहने की प्रेरणा देता है। श्राद्ध के माध्यम से हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर और पारिवारिक परंपराओं को भी संरक्षित रखते हैं। यह अनुष्ठान न केवल पितरों की आत्मा को शांति प्रदान करता है, बल्कि हमें भी मानसिक और आध्यात्मिक संतोष का अनुभव कराता है। यह एक ऐसा अनुष्ठान है, जो हमारी संस्कृति की गहराई और हमारी धार्मिक आस्थाओं की पुष्टि करता है। श्राद्ध को उसकी पूरी विधि और शुद्धता के साथ करने से न केवल पितरों की आत्मा को शांति मिलती है, बल्कि हमारे जीवन में भी सुख, शांति और समृद्धि का आगमन होता है। इस प्रकार, श्राद्ध हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है और हमें अपने पूर्वजों के प्रति हमारे कर्तव्यों की याद दिलाता है।
— रवींद्र कुमार शर्मा