मौन तप
एक बार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के हाथ की हड्डी टूट गई थी और इसके कारण उन्हें अपने हाथ की शल्यक्रिया करवानी थी। चूँकि वे क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल थे और बहुत सारी योजनाओं के सूत्रधार थे, अतः शल्यक्रिया के लिए जब वे चिकित्सक के पास गए तो उन्होंने डॉक्टर से कहा कि वे उन्हें बेहोश न करें, अपितु चैतन्य अवस्था में ही शल्यक्रिया करें, क्योंकि तिलक को पता था कि यदि उन्हें बेहोश किया गया, तो हो सकता है कि अनगिनत योजनाओं तथा गुप्त बातों को वे कहने लगें और उनका सब राज डॉक्टरों तथा उनके द्वारा अँग्रेजों के सामने प्रकट हो जाए। इसलिए उन्होंने गीता उठाई और उसे पढ़ना शुरू कर दिया। वे उसमें इतनी गहराई से तल्लीन हो गए, भाव में डूब गए कि भयंकर पीड़ा होने पर भी न तो उन्होंने कोई आवाज की और न ही चीखे। शांत भाव से वे केवल पढ़ते रहे, जैसे कोई योगी हो, जिसने अपनी चेतना को अपने शरीर से पृथक कर लिया हो। जब उनकी शल्यक्रिया पूरी हो गई, तब वे चेतना के गहरे भाव से सामान्य स्तर पर आ गए। तिलक की मौन तप – साधना देखकर चिकित्सक दंग रह गया।
प्रस्तुति –गौरीशंकर वैश्य विनम्र