तीन पहर
तीन पहर तो बीत गये, बस एक पहर ही बाकी है
जीवन हाथों से फिसल गया, बस खाली मुट्ठी बाकी है
दुनिया से हमने क्या पाया, यह लेखा जोखा बहुत हुआ
इस जग ने हमसे क्या पाया, बस यह गणनाएं बाकी हैं
सब कुछ पाया इस जीवन में, फिर भी इच्छाएं बाकी हैं
इस भाग दौड़ की दुनिया में, हमको इक पल का होश नहीं
वैसे तो जीवन सुखमय है, पर फिर भी क्यों संतोष नहीं
क्या यूँ ही जीवन बीतेगा? क्या यूँ ही सांसे बंद होंगी?
औरों की पीड़ा देख समझ, कब अपनी आँखे नम होंगी?
मन के भीतर कहीं छिपे हुए, इस प्रश्न का उत्तर बाकी है
मेरी खुशियां, मेरे सपने, मेरे बच्चे, मेरे अपने
यह करते करते शाम हुई, जीवन राहों में मस्ती में
इससे पहले तम छा जाए, इससे पहले कि शाम ढ़ले
एक दीप जलाना बाकी है, dgha दूर परायी बस्ती में
जो भी सीखा इस जीवन में, वह अर्पण करना बाकी है
— हेमंत सिंह कुशवाह