कविता

धरती आबा के वंशज

जनाब कितने आये और कितने गये,
पर हम आज भी वहीं हैं जहां थे
भले ही न बन पाये आपके जैसे नये,
बुरी नीयत रख हमारी कितनों जमीनें
साल दर साल आप हड़पे
मगर आज भी हम मालिक हैं
अपने खिलखिलाते हरे भरे जंगल के,
यहीं हम ढूंढ लेते हैं सारी खुशियां
और जरूरतें जन मंगल के,
हमें मिटाने की हर कोशिशों के बाद भी
हम अडिग हैं जस के तस,
हमारी हस्ती मिटा सको
ये नहीं है आपके बस,
जब मिटा नहीं पाते,
हमें हमारी जगहों से हटा नहीं पाते तो
हमें कहने लगते हो उपद्रवी या नक्सली,
जिस मानसिकता के मिल जाएंगे
आपके लोग हर चौराहे हर गली,
लेकिन लगा देते हो हम पर इल्जाम,
जग में करते हो हमें बदनाम,
जो परिचायक है
आपके क्रूर सामाजिक व्यवस्था का,
लाभ उठाते रहते हो
अपने सामाजिक,राजनीतिक अवस्था का,
मत भूलो हम वाकिफ़ हैं
जंगल के चप्पे चप्पे से,
लड़ने वालों को छोड़ डराते हो
हम बेकसूरों को अपने रंग दिये छप्पे से,
हमें मतलब नहीं आपके आराध्यों से
हमारा इंसाफ करता है पुरखे और प्रकृति,
मत भूलो कभी भी प्राप्त कर सकते हो दुर्गति,
आप दिखा सकते हो जंगल के प्रति उदासी,
मगर हम सजग थे,हैं और रहेंगे,
क्योंकि हम हैं धरती आबा के वंशज
आदिवासी,आदिवासी,आदिवासी।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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