गीत
तुम बिन बंधु, बहुत व्याकुल मन !
जैसे एक हिमपात हुआ है, सूख गया है उर का कानन।
फलित पेड़ हो कदली का और सम्बल कोई हटा ले जैसे।
कमर झुके एक वृद्ध व्यक्ति से लाठी कोई छुड़ा ले जैसे।
जैसे की सावन में शिखि को, कोई व्याध बनाये बंदी,
या फिर थके पथिक को कोई लम्बी राह बता दे जैसे ।
माली बिना जेठ में जैसे, सूख रहा हो कोई उपवन।
तुम बिन बंधु…………………………….
सब कुछ मेरे पास हो शायद, लेकिन आप नही हो भाई।
इस जग में सब सुख झूठे है, शाश्वत काल बहुत दुखदायी।
अपनों को खोने की पीड़ा, वज्रपात जैसे होती है,
मन जग से व्याकुल होता है, और खोजता है तन्हाई।
सब कुछ एक जैसे लगते है शूल, फूल, पतझड़ और सावन।
तुम बिन बंधु………………
मैं कुछ भी तो नही कर सका, जब निकले तुम अंतिम पथ पर।
दो बातें भी नही कर सका, अंत समय में तुमसे मिलकर।
मैं बेबस सा खड़ा रहा बस, देह आपकी शांत हो गई,
और बिलखता रहा बंधु मैं इन नयनों में आंसू भरकर ।
लेकर गये आप को भ्राता,अपने पुर को जसुदानंदन।
तुम बिन बंधु……………..
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी
16/09/24, फतेहपुर