ग़ज़ल
महज़ नज़र का धोखा है,
ये न समझ के मौका है।
किसने राहें आसां की,
किसने रस्ता रोका है।
इक कतरे ने आकर के,
सारा सागर सोखा है।
तब-तब ही उत्तीर्ण हुआ,
जब- जब माँ ने टोका है।
दस रुपयों वालों सुन लो,
नोट हमारा सौ का है।
जय तेरी इन ग़ज़लो में,
शेर यही इक चोखा है।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’