तीन भाई
जी हां तीन भाई
जो लड़ते रहते थे आपस में लड़ाई,
कि कौन किसके हिस्से की रोटी खाया,
किसने किसको उल्लू बनाया,
करना था सबको मुखियागिरी,
सिद्धस्त थे करके चमचागिरी,
बने रहे औरों की हाथों का खिलौना,
फांके पड़े ऐसे बचा नहीं बिछौना,
पर कोई कुछ भी नहीं समझने को तैयार,
खुद को मानते रहे भाइयों से होशियार,
मौका देखकर एक चालबाज आया,
चिकनी,चुपड़ी बातों से तीनों को फंसाया,
रोज रोज लड़ना तीनों की बनी आदत,
लोलुपता के कारण घर दे रहा शहादत,
लड़ते रहने से घर में नहीं कुछ बचा,
चालबाज सबको था रहा नचा,
बनना था त्रिशूल पर सब शूल बन गए,
एका नहीं बची अब सब धूल बन गए,
रुतबा दबदबा तीनों मिलके खा गए,
नेतृत्व का था मौका वो भी गंवा गए,
सुखचैन का गाना चालबाज गा रहे,
अकड़ अपनी तीनों न भूल पा रहे,
यहीं हाल देखो अपने समाज में,
कौन शोषक और शोषित परख लो अंदाज में।
— राजेन्द्र लाहिरी