अमुल्य दान
समस्त आर्यावर्त में बुद्धम शरणम गच्छामि संघम शरणम गच्छामि का शाश्वत गान गूंज रहा था बुद्ध स्वयं नगर नगर द्वार द्वार ग्राम ग्राम जन-जन को प्रेम और करुणा का पाठ पढ़ाते सत्य क्षमा दान और अपरिग्रह का संदेश देते विचरण कर रहे थे. हर कोई उन्हें अपनी क्षमता अनुसार भेंट और दान देने को उत्सुक थे , जिनका उपयोग धर्म प्रचार के दौरान निर्धनों की सहायता में , मठ निर्माण में और शिष्यों के अध्ययन अध्यापन में होता था. सांध्यकाल के धुंधलके में नगर की निचली बस्ती से बाहर होते बुद्ध धीमे कदमों से चले जा रहे थे.
भिक्षां देही का करुण स्वर वातावरण में गूंज रहा था. कंटकाकिर्ण पथ के किनारे जीवन के विषम दु:खों से आतप्त रुग्ण शरीर लिए एक दीन हीन स्त्री सुबह से बैठी इस प्रेम और करुणा के देवता की बाट जोह रही थी और विचारोँ मेँ मग्न थी । प्रभु अवश्य आएंगे मैं उनके दर्शन करूंगी. उनके चरण स्पर्श करूंगी मेरा जीवन धन्य हो जाएगा. मेरे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे.
दिन भर की बेचैनी अचानक दूर होने लगी. बौद्ध भिक्षुओं के काफिले की पद्चाप और भिक्षांदेहि की करुण ध्वनि कानों में गूंजने लगी.मन जो अत्यंत प्रसन्नता से उत्तेजित था , कुछ विचार आते ही चिंता से विचलित हो गया.मेरे प्रभु आ रहे हैं उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा. सारा विश्व उनके दर्शन लाभ के साथ उन्हें कुछ भेंट भी दे रहा है मैं उन्हें क्या भेंट दूंगी? मेरे पास क्या है? उसकी नजर स्वयं के शरीर पर ऊपर से नीचे तक घूम गई. शरीर पर दो वस्त्र थे जो नारी शरीर की लज्जा ढकने के लिए आवश्यक होते हें भेंट देने की इच्छा की पराकाष्ठा ने उस स्त्री को विचार दिया कि हां मेरे पास दो वस्त्र तो है मैं अपनी नारी सुलभ लज्जा तो एक वस्त्र से भी छुपा सकती हूँ और दूसरा वस्त्र तो भेंट दे ही सकती हूँ. अपने निर्णय से पुर्णतया संतुष्ट महात्मा बुद्ध के दर्शन को व्याकुल और प्रभु को भेंट अर्पण करने के लिए बेचैन उस दीनहीन स्त्री ने अपने शरीर का एक वस्त्र उतारा और पथ से गुजरते बुद्ध के चरणों में अर्पित कर दीया. उनके दर्शन किए हाथ जोड़े और लज्जावश पथ के नजदीक फैली झाड़ियों में स्वयं को छुपा लिया. महात्मा बुद्ध ने अपनी पवित्र और प्रेममय दृष्टि से उसे निहारा अपना वरद हस्त ऊंचा किया और आगे बढ़ गए.
संध्या को जब प्रिय शिष्य आनंद ने दिवस काल में प्राप्त बड़े-बड़े बहुमूल्य दानदाताओं और दान की वस्तुओं का जिक्र बुद्ध से किया तब महात्मा बुद्ध ने सभी बहुमूल्य सामग्री हटाकर वही वस्त्र सबके सामने प्रस्तुत करते हुए आनंद को कहा आज की प्राप्त दान सामग्री में यह वस्त्र अमूल्य है. यह महादान है.
सो कैसे प्रभु? कहां यह धन-धान्य रजत स्वर्ण की दान सामग्री और कहां यह साधारण सा वस्त्र?
नहीं वत्स यह साधारण वस्त्र नहीं. स्वर्ण रजत धनधान्य या भूमि जिन्होंने दान दी है उनके पास इससे कई गुना अधिक संपत्ति है तभी वह इतना दान करने की हिम्मत कर पाए लेकिन यह वस्त्र जिस स्त्री ने दिया है उसके जीवन की महती आवश्यकताओं में से एक होकर उसकी अत्यल्प संपदा का एक हिस्सा था यह वस्त्र जो उसने सहर्ष मुझे दान दीया है यह अमूल्य है इसके आगे सारे स्वर्ण रत्न धन धान्य का कुछ भी मूल्य नहीं.
— महेश शर्मा धार