राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020
महात्मा गांधी का भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन व स्वतंत्र भारत की विकास नीतियों में अप्रतिम स्थान रहा है। गांधी जी ने केवल स्वतंत्रता आंदोलन का ही नेतृत्व नहीं किया, वरन भावी भारत के लिए योजना भी प्रस्तुत की। गांधीजी कोरे आदर्शवादी नहीं थे। गांधीजी का आदर्शवाद अध्यात्म का मार्ग ही प्रशस्त नहीं करता था, वह जीवन के लिए शिक्षा के ढांचे पर भी विचार करता था। वे यथार्थ पर विचार करते थे, इसलिए उन्हें यथार्थवादी भी कहा जा सकता है। वे यथार्थ के लिए योजना बनाते थे। वे प्रयोजनवादी भी थे, वे जनसामान्य के लिए प्रयोजन सिद्धि पर भी जोर देते थे। वे भारत के भविष्य के लिए चिंतन, मनन व नियोजन भी करते थे।
किसी भी देश का आधार वहाँ के नागरिक होते हैं। किसी भी देश का स्तर उनके नागरिकों के स्तर पर निर्भर करता है। नागरिक के विकास का आधार वहाँ की शिक्षा होती है। भारत की शिक्षा व्यवस्था वैदिक काल से ही समृद्ध मानी गई थी। इसी आधार पर भारत को विश्वगुरू माना जाता था। इसका आधार गुरूकुल व्यवस्था रही थी। कालांतर में विभिन्न कारणों से गुलामी की अवस्था का सामना करना पड़ा। गुलामी की अवस्था में हमारी गुरूकुल प्रणाली भी नष्ट हो गई। शिक्षा व्यवस्था का संपूर्ण ढांचा ही नष्ट हो गया। अंग्रेजी शासन व्यवस्था के अन्तर्गत तात्कालिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से शिक्षा व्यवस्था का विकास किया। वह प्रणाली भारत के विकास के लिए नहीं, वरन अंग्रेज शासन की मजबूती के लिए थी। इस बात को गांधी ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था। गांधीजी ने शिक्षा के बारे में अपने विचार कुछ इस तरह प्रस्तुत किए, ‘‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय है-बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में पाए जाने वाले सर्वोत्तम गुणों का चतुर्मुखी विकास।’’ गांधीजी की शिक्षा संबन्धी अवधारण बिल्कुल स्पष्ट थी। वे साक्षरता को आवश्यक तो मानते थे, किन्तु साक्षरता शिक्षा नहीं है। इस बात को इन शब्दों में स्पष्ट किया, ‘साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है और न आरंभ। यह केवल एक साधन है, जिसके द्वारा पुरूष और स्त्रियों को शिक्षित किया जा सकता है।’ गांधी ने शिक्षा को देश के विकास के लिए आधारभूत आवश्यकता के रूप में देखा। यही कारण था कि गांधीजी ने भारत की शिक्षा व्यवस्था के लिए आमूलचूल परिवर्तन के लिए योजना बनाई।
गांधी जी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमूल्य थी। इसे वर्धा योजना, नयी तालीम, बुनियादी तालीम तथा बेसिक शिक्षा आदि नामों से भी जाना गया। गांधीजी ने 23 अक्टूबर 1937 को नयी तालीम की योजना प्रस्तुत की थी, जिसे राष्ट्रव्यापी व्यावहारिक रूप दिया जाना था। उनके शैक्षिक विचार अन्य शिक्षाशास्त्रियों के विचारों से मेल नहीं खाते, इसलिये उनके विचारों का विरोध उस समय भी हुआ और आज भी हो रहा है।
22-23, अक्टूबर , 1937 को वर्धा में जो ‘अखिल भारतीय शैक्षिक सम्मेलन’ आयोजित हुआ, उसकी अध्यक्षता गांधीजी ने की। उसके उद्घाटन भाषण में गांधीजी ने अपने शिक्षादर्शन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला। उसके बाद उनकी नई तालीम शिक्षा योजना के अनेक पहलुओं पर खुली चर्चा हुई। इस चर्चा में प्रसिद्ध गांधीवादी शिक्षाशास्त्री विनोबा भावे, काका कालेलकर तथा जाकिर हुसैन, सहित अनेक विद्वानों ने भाग लिया। सम्मेलन के अन्तिम दिन निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये-
(1) बच्चों को 7 वर्ष तक राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा दी जाय।
(२) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।
(३) इस दौरान दी जाने वाली शिक्षा हस्तशिल्प या उत्पादक कार्य पर केंद्रित हो। अन्य सभी योग्यताओं और गुणों का विकास, जहाँ तक सम्भव हो, बच्चों के पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बालक द्वारा चुनी हुई हस्तकला से सम्बन्धित हो।
वर्तमान समय में हम विचार करें तो अब भी हम गांधीजी द्वारा प्रस्तुत मूल बिन्दुओं को अपनी शिक्षा योजना में लागू करने के प्रयास ही कर रहे हैं। समय-समय पर बदले हुए वातावरण व परिस्थितियों में स्वतंत्र भारत की सरकारों के द्वारा शिक्षा नीतियाँ बनाई जाती रहीं हैं। 1968 व 1986 के बाद 2020 में शिक्षा नीति की घोषणा की गई है। हमारे द्वारा अपनाई गई तीनों ही नीतियों में गांधीजी की शिक्षा नीति के मूल तत्व मौजूद रहे हैं। हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का निचोड़ निकाला जाय तो वह आज भी राष्ट्रव्यापी, निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पर जोर दे रहीे है, जिसे हम आज तक प्राप्त नहीं कर पाए हैं। हम आज भी शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा को लागू नहीं कर पाए हैं, वह अभी भी हमारा आदर्श ही है। कौशल शिक्षा भी गांधी जी द्वारा प्रस्तुत हस्तशिल्प या हस्तकला का अनुकरण मात्र है। अभी तक न तो हम माध्यमिक शिक्षा को सार्वभोमिक बना पाए हैं। बार-बार के दिखावटी प्रयासों के बावजूद अभी तक माध्यमिक शिक्षा की भारत की सर्वोच्च संस्था एन.सी.ई.आर.टी. सभी भारतीय भाषाओं में पाठयपुस्तकें भी उपलब्ध नहीं करा पाई है। स्थानीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ाने में सक्षम कुशल अध्यापक भी हमारे पास नहीं हैं। हम कौशल शिक्षा की बात सिद्धांततः करते हैं किन्तु व्यवहार में यह आज तक लागू नहीं हो पाई है। इसी का परिणाम है कि बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ रही है। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद का कथन सही सिद्ध होता है कि हमारे यहाँ सिद्धांत बहुतायत में हैं किन्तु व्यवहार अत्यल्प है।
गांधी जी के शिक्षा संबन्धी विचारों का उस समय भी विरोध हुआ था, आज भी विरोध हो रहा है। आज भी मातृभाषा में शिक्षा की बात करने पर हिन्दी थोपने का आरोप लगाकर विरोध किया जा रहा है। आज भी अंग्रेजी भाषा की ही वकालत की जाती है। आज भी कौशल शिक्षा की मजाक ही उड़ाई जाती है। कौशल विषय को यूँ ही अतिरिक्त विषय के रूप में लिया जाता है। इस विषय को अध्यापक, अभिभावक व विद्यार्थी कोई भी गंभीरता से नहीं लेता। जबकि यही विषय जीवन में सबसे अधिक उपयोगी है। यही बेरोजगारी को नियंत्रित कर सकता है। गांधी जी ने स्वतंत्रता से पूर्व ही देश की आवश्यकता को समझ लिया था। हम कब तक समझेंगे? आज भी हम गांधीजी का अनुकरण करने के लिए तैयार नहीं हैं। आखिर कब तक हम गांधी जी के सपनों को हम अपनी शिक्षा व्यवस्था में यथार्थ रूप दे पाएंगे। गांधीजी की जयंती पर यह हमारे विमर्श के केन्द्र में होना चाहिए।