कविता – बचपन के खेल
बड़ा सजीला रंग रंगीला
खेल खिलौनो का संसार |
बचपन मे हम खेला करते ,
गुड्डे गुड़िया का घर बार |
कभी बनाते एक तराजू ,
छोटी छोटी दिया निकाल |
निमकौरी का ढेर लगाके,
खेला करते थे व्यापार |
माटी के हाँथी घोड़ो से,
दिल का था लगाव भारी |
वह बचपन की फुलवारी ,
कितनी प्यारी जग से न्यारी|
चिड़िया,बुलबुल,तोता .मैना
सब माटी के बने हुये |
माटी में ही खेल – खेल कर ,
हम माटी में ही पले बढे |
रंग बिरंगी इस दुनियाँ के ,
खेल खिलौने बदल गये |
टैडी डोगी के कक्कर में ,
अपनी माटी भूल गये |
गुड़िया बन गयी डोल बार्बी ,
फ्रोज़न फ्यूज़न युग आया |
बंदूके बन गयी खिलौने ,
अपनापन सब बिसराया |
तोता मैना परियों के ,
किस्से भी सारे बिसर गये |
प्यारे से वह खेल खिलौने,
देखो कितने बदल गये |
टैडी पान्डा के चक्कर में ,
बच्चे अब बहुत मचलते हैं |
अब माटी के खेल – खिलौने ,
रोते और सिसकते हैं |
— मंजूषा श्रीवास्तव “मृदुल”