कितना अकेला है ऊपर वाला!
कितना अकेला है ऊपर वाला;
जगत जिसका है इतना अलवेला!
बिना बात का रचा खेला;
लग गया यहाँ मेला!
ना कुछ लगाया ना पाया;
जगत का व्यापार संजोया!
सब है उसके मन की माया;
ना कोई आया ना गया!
अंदर ही सब उपजाया;
बंदर यों ही इतराया!
सब आए, गए औ समझे;
अस्तित्व का मर्म बूझे!
वही था जो नट बन नाचा;
बदल वसन हमको जाँचा!
हम देखे उसका नाच;
वह देखा हमारा साँच!
हमारी श्वाँस में था उसका वास;
हम बैठे यों ही उदास!
घर हमारा दर उसी के;
किरदार किरायेदार उसके!
बिन बात के रहे फुदके;
कहाँ थे हम कुछ किसी के!
आए गए पाए खोए;
जग कर स्वप्न झाँके!
सब बाँके रहे बा के;
चोंके जब झाँके!
अद्भुत है ज़माना;
उसी का है तराना!
चौतरफ़ा निशाना;
भूले श्वाँस का आना-जाना!
मैं चला तो जाना;
कहीं नहीं था जाना!
— गोपाल बघेल ‘मधु’