सोचा नहीं था
आवारा आंधी की तरह
दहलीज़ के बाहर वाले छप्पर से
छेड़खानी करते हुए
तेजी से गुजर जाने वाले अपनों में
वह हवा भी शामिल है
जिसे अपने जिगर में
छुपाकर रखा था मैंने।
मेरे स्वाभिमान पर
बरसते अपमान के पत्थरों में
वे कंकड़ भी शामिल थे
जिन्हें अपनी बुनियाद से निकालकर
उनकी मुंडेरों पर
जड़वाया था मैंने।
पीठ पर पड़ने वाले
छल-छद्म के हथौड़ों को
चलाने वाले सैकड़ों हाथों में
वे दो हाथ भी शामिल थे
जिनको मजबूत करने में
अपने निवालों को
छोटा कर दिया था मैंने।
जिनको ढंकने के लिए
मैंने उतार दी थी अपनी पगड़ी
फिर टांग दिया था मैनें
बाहरी जर्जर दरवाजे पर
अपनी कमीज़ का पर्दा
आज वे ही लोग
मुझे बेपर्दा कर, मेरी उसी पगड़ी से
पाद- कंदुक खेलने लगे हैं।
सुना था और कहीं-कहीं पढ़ा भी था मैंने
आवश्यक होता है असंतुलन
पुनः संतुलन के लिए
परिवर्तन तो शाश्वत नियम है प्रकृति का
एक ही हाथ की पांचों अंगुलियां
नहीं होतीं बराबर
गिरगिट का रंग और नेताओं का ढंग भी
कहां रहता है एक-सा!
बदलता है मौसम और बदलता है नसीब भी
किंतु इतना मैंने कभी सोचा नहीं था।
— डॉ. अवधेश कुमार अवध