कविता

ये दुनिया खेल तमाशा

धन लोलुप मतिभ्रम और अहंकारी बन,
अज्ञानी अतृप्त हो लक्ष्य से बहका मन,
सुख-दुख, रिश्ते-नाते, सब उलझाएं,
सगा कौन, बैरी कौन कोई न समझाएं,
झूला झूले मनवा बीच आशा और निराशा,
सुन रे बंधूं ! रंगमंच ये दुनिया खेल तमाशा ।

भंवर में मोह माया के जा गहरा धंसा,
कर्म बंधनों के मकड़जाल में जा फंसा,
जीवन “आनंद” छोड़ दर्द को स्वयं बढ़ाएं,
निज प्रशंसा के नाते आस्तीन में सांप छुपाएं,
झूला झूले मनवा बीच आशा और निराशा,
सुन रे बंधूं ! रंगमंच ये दुनिया खेल तमाशा ।

बिना सद् गुरु के जीवन में तमस है गहरा,
जन्म उद्देश्य सद्गुणों के मर्म पर लगा पहरा,
खींचे चकाचौंध दुनिया की बढ़ें विपदाएं,
अपनों से रूठे, जा गैरों से झूठी आस लगाएं,
झूला झूले मनवा बीच आशा और निराशा,
सुन रे बंधूं ! रंगमंच ये दुनिया खेल तमाशा ।

कर्मों की नगरी में हर घर न बजे शहनाई,
चार दिन की चांदनी सबकी होती विदाई,
संजीवनी शक्ति को पहचानें प्रयोग में लाएं,
दिव्य सहस्त्र कमल भीतर अवश्य खिलाएं,
झूला झूले मनवा बीच आशा और निराशा,
सुन रे बंधूं ! रंगमंच ये दुनिया खेल तमाशा ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु