कविता

आवरण

आखिर, इतनी, खामोशी और सन्नाटा सा, क्यों पसरा है
‌बाहरी चकाचौंध, के, आवरण में हमारा हर क्षण, क्यों जकड़ा है ।।

फूल तो, आज़ भी, पहले जैसे सुगन्धित हो, खिलखिला, रहे हैं
जीवन कैसे, जिया , जाता है पल पल, सबक, सिखला रहे हैं

आज भी पंक्षियों, का कलरव पूर्व सा ही, विद्यमान है
सूर्य, चन्द्र और तारों से यह गगन, दैदीप्यमान है

वर्षा की , रिमझिम, फुहारें अभी भी,नृत्य, करने को, मचलती
बादलों से, बिजलियां भी अठखेलियां करतीं, न थकती

ऊंचे-ऊंचे, झरझर, झरनों से संगीत , पहले सा ही, बज रहा है
प्रकृति के, खूबसूरत , उपहारों से धरा का, कण-कण, सज रहा है

वीणा की, मधुर, तानों पर अंग प्रत्यंग , मचल उठता है
अन्तर्मन यदि, द्वंद रहित है दर्पण आज भी, उतना दमकता है

नदियों , झीलों , सागर तट पर आनंद हिलोरें, मार रहा है
हिमालय की ,गहरी, कंदराओं में शांति का सुर, झंकार रहा है

बच्चों में, वैसी ही, मासूमियत वही, अल्हड़ पन, मौजूद है
कहानियां, सुनते सुनते, सो जाना कायम उनमें,आज भी, बदस्तूर है

रण तो, भारत की, समर भूमि पर सदैव से होते, आ रहे हैं
छल, कपट, विश्वासघात, के पल युगों से छलते, जा रहे हैं

युवा दिलों , की, धड़कनों, में जोश, जस का तस, बरकरार है
टूटते हैं जब, सुनहरे सपने फूट पड़ता, भावनाओं,का ज्वार है

फिर ऐसा, क्या हुआ , सहसा कि, निराशा पांव, पसार रही है
नींद आंखों से, ओझल क्यों है शून्य की तरफ , निहार रही है

आखिर इतनी, खामोशी , और सन्नाटा सा, क्यों, पसरा है
बाहरी चकाचौंध, के, आवरण में हमारा, हर क्षण, क्यों जकड़ा है।।

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई