खिड़कियाँ
मन की सारी खिड़कियाँ
खुलती हैं मौसम देखकर
धूप में हटा देती हैं पर्दे और
सेंकती हैं अवसादों को
सीलन सारी तपाकर
उम्मीदें नई सजाती हैं
तेज़ हवाओं में अक्सर
हल्के से कपाटों को लगाकर
उपेक्षाओं की धूल को
अंदर आने से बचाती हैं
मन को सबसे ज़्यादा फिर भी
बारिश पसन्द है
हाथ बढ़ाकर प्रेम का
बूंदों को भरकर अँजुरी में
समर्पण की सीढ़ियां पखारती हैं।
— सविता दास सवि