ग़ज़ल
लबों पे आह है आँखों में पानी
मुहब्बत दे गई कुछ तो निशानी
संभाला था दिल को मुश्किलों से
तुमने फिर छेड़ दी वो ही कहानी
मैंने आगाह किया तुमको हमेशा
मगर तुमने ना मेरी बात मानी
कुछ ऐसा है बेचैनी का आलम
दरिया हो गया जैसे तूफानी
सुना है चिट्ठियां पढ़ते नहीं तुम
अब के पैगाम भेजा है जुबानी
भूले हो मुझे तुम इस तरह से
हो जैसे दास्तां कोई पुरानी
— भरत मल्होत्रा