कहानी

कहानी – अपने हिस्से का उजाला

अगस्त महीने का पहला सप्ताह बरसात अपने पूरे शबाब पर थी ।
पहले रिमझिम रिमझिम फुहारें गिरने लगीं । फिर धीरे-धीरे तेज बारिश होने लगी। वह बरामदे में बैंच पर बैठी देखे जा रही थी…।
न जाने कब वह अतीत के ख्यालों में डूब गई… ।
कहते हैं न अतीत कितना भी कड़वा क्यों न हो? उसकी यादें हमेशा मीठी होती हैं …।
उस दिन भी तो बहुत तेज बारिश हो रही थी आज की ही तरह और वह दोनों बच्चों को लेकर बरामदे में बैठी थी।
ससुर तो थे नहीं,सास और पति ने उसे घर से निकाल दिया था।
एक कमरा दे दिया था बाहर छोटा सा बरामदा था।
वह कमरा भी इस शर्त पर दिया था कि यदि तुमने यहां रहना है तो रहो ,अगर चले जाना है तो चले जाओ…. ।
दो बच्चों को लेकर आखिर वह कहां जाती?
बड़ा बेटा चार साल का था और बेटी दो साल की थी ।
दोनों बच्चे भूख से बिलख रहे थे । न रोटी बनाने के लिए बर्तन थे न ही कोई खाने का सामान था।
पास ही बगीचे में आम पके थे । हवा के झोंकों से कुछ आम पककर नीचे गिरे थे ।
वह बारिश में ही दौड़ कर गई और चार-पांच आम उठा लाई और बच्चों को दे दिए ।
बरामदे के सामने कूहल बह रही थी परंतु आज कूहल न होकर एक नाले जैसी लग रही थी।
थोड़ी सी बारिश थमी तो वह बच्चों के कपड़े धोने के लिए कूहल की ओर जैसे ही बढ़ी , उसने देखा ऊपर से एक एल्युमिनियम का पतीला बहता हुआ पानी में आ रहा है। उसने उसे पकड़ लिया । उसे लगा जैसे परमात्मा ने बच्चों को रोटी बनाने के लिए यह पतीला स्वयं उसे भेजा हो । आज उसे परमात्मा पर विश्वास हो गया था कि जिसका कोई नहीं उसका ईश्वर होता है…।
जिसने चोंच दी है वह चोग भी देगा।यह निश्चित सत्य है कोई माने या न माने, परंतु वह तो मानती है।
उसने पतीला धोया और उसे बरामदे में ले आई ।
एक बुजुर्ग पड़ोसी ने बच्चों को भूख से बिलखते देखा तो वे अपने घर से थोड़ा सा आटा चावल और नमक वगैरा बैग में डालकर उसे पकड़ा गये।
उसने आसपास से लकड़ियां इकट्ठी कीं और बच्चों के लिए उस पतीले में नमक डालकर आटा घोलकर लुगुडु बनाकर खिला दिया। क्योंकि तवा तो चपाती बनाने के लिए था नहीं। शाम को एक टीन के पत्रे को धो- धा कर उसने तवे के रूप में इस्तेमाल करने के लिए तैयार कर लिया।
मुश्किलों के बीच में भी जिंदगी रास्ते बना ही लेती है। जैसे कोई नदी पर्वत से गिरते हुए अपना रास्ता बनाती हुई चलती जाती है और आखिर अपनी मंजिल को पा ही लेती है….।
वह भी अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर घर के कमरों से निकलकर बरामदे तक आ गई थी अब उसे भी अपना रास्ता खुद बनाना था..।
ऐसे लग रहा था जैसे चारों ओर धुंध ही धुंध हो और कुछ भी दिखाई न दे रहा हो । उजाले की कोई किरण दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही थी…।
बस धुंधला अंधेरा था और वह ..।
मुसीबतों का पहाड़ तो उस दिन ही उस पर आ गिरा था जिस दिन स्कूल से आते ही उसे दुल्हन बनाकर इस उम्रदराज बूढ़े शराबी के साथ ससुराल भेज दिया गया था….।
जैसी कोई बछिया नहीं होती व्यापारी आए और गले में रस्सी बांधी और बेच दी । उसका भी यही हाल था ।
जिस के साथ उसकी शादी की जा रही थी वह पास के गांव में बारात लेकर आया था । परंतु जब लड़की वालों को पता चला कि लड़का बेशक सरकारी विभाग में बेलदार है परंतु शराबी है, और जो कमाता है वही उड़ा देता है , और उम्र में भी बड़ा है ; तो उन्होंने लड़की देने से इनकार कर दिया ।बारात बिना दुल्हन के ही वापस आ गई ।
साथ ही रास्ते में उनका गांव था। बापू की वे छः बेटियां थी ।
बापू ने अपना फर्ज निभाने के चक्कर में उसकी शादी करने के लिए हां कर दी।
वह स्कूल से आई ही थी अभी बस्ता रखा ही था कि उसे दुल्हन बनाया जाने लगा ।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसके साथ यह क्या हो रहा है ….?
अभी वह आठवीं में ही तो पढ़ती थी ।
उस जमाने में लड़कियों को कहां पढ़ाते थे । वह पढ़ने में होशियार थी इसलिए स्कूल के अध्यापकों ने भी उसका सहयोग किया था और बापू को उसे पढ़ाने के लिए प्रेरित किया था…।
परंतु बदकिस्मती देखिए….
अभी वह आठवीं में ही पढ़ रही थी तो बाली उमर में उसकी पीठ पर गृहस्थी का बोझ लाद दिया गया जिसे ठीक से शादी क्या होती है की भी जानकारी नहीं थी….।
वह मां की गोद से उतरकर बचपन में ही ससुराल पहुंच गई थी । न तो उसे ससुराल में रहने के कानून कायदे का पता था और न ही दुनियादारी का….।
उसका बचपना और शराबी पति के अत्याचार आपस में टकराने लगे…।
किसी से हंसकर बात क्या की वह मार – पिटाई पर उतर आता । बहुत शक करता था वह…। और ….सासू मां अपने बेटे की हिमायत करती और हमेशा उसे ही गलत ठहराती ।
खैर लड़ते झगड़ते अत्याचारों को सहते सकते छः सात बरस ऐसे निकले जैसे एक युग बीत गया।
इस दौरान उसके दो बच्चे हो गए थे । अभी वह जवानी की दहलीज पर थी । परंतु जवानी क्या होती है ? उसे पता ही नहीं चला वह तो मुसीबत के पहाड़ों के नीचे दबी थी..।
खुद की रोटी के जुगाड़ के साथ-साथ दो बच्चों को पालना उसके लिए टेडी खीर था। परंतु उसे विश्वास था कि ईश्वर उसे जरूर रास्ता दिखाएगा ।इसी आस्था विश्वास के बूते वह जीवन के कठिन दिनों को जिए जा रही थी।
उसका मायका ससुराल से कोई सौ किलोमीटर दूर था…।
उसके इस दुख की खबर उसके मायके तक कैसे पहुंचे इसलिए उसने अपने भाई को चिट्ठी लिखी ।
चिट्ठी में लिखा कि उसके पति व सास ने उसे अलग कर दिया है , और वह एक टूटे-फूटे कमरे में बच्चों के साथ रह रही है ।
न खाने को रोटी है न सोने को बिस्तर ।
चिट्ठी कोई एक सप्ताह बाद वहां पहुंची होगी । चिट्ठी के मिलते ही भाई बोरी में खाने पीने का सामान डालकर उसके पास पहुंच गया था।
जाते जाते कुछ हिदायतें भी दे गया था कि तुम्हें कोई भी मुश्किल हो हमें बताना…. ।
परंतु बच्चों के साथ घर छोड़कर मायके मत आना…. ।
हमारी भी इज्जत है लोग क्या कहेंगे वगैरा-वगैरा…।
कई हिदायतें देकर वह चला गया था…..।
किसी भी लड़की को जब ससुराल में मुश्किलें आएं तो वह मायके की ओर देखती है ।
परंतु जब मायके वाले ही हाथ पीछे खींच लें तो वह किस ओर देखे यह प्रश्न कल भी था और आज भी है…।
खैर उसने हिम्मत की इस युद्ध को स्वयं लड़ने की ।
कभी उसने अपने स्कूल की दीवारों पर लिखा पढ़ा था -संघर्ष का नाम ही जीवन है ।
आज उसके जीवन में संघर्ष ही संघर्ष था जीवन तो कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा था…।
फिर भी उसने हौसला नहीं हारा था।
निराशा के गहन तिमिर में भी उजाले की लौ जरूर होती है…। इसी आस में उसने अपने भीतर के धैर्य को नहीं छोड़ा था।
हरिद्वार का रास्ता तो सब बताते हैं परंतु जेब से किराया कोई नहीं देता ।
उसके साथ भी तो यही सब था। जवान थी सुंदर थी और एक तरह से विवाहित होते हुए भी अकेली थी। उस पर कई लोगों की नजर थी… ।
रास्ता बहुत बताते थे परंतु साथ चलने को कोई तैयार नहीं था ।
अंततः इस सारे रास्ते पर तो उसे खुद ही चलना था । उसके पैरों में दम चाहिए था । तभी वह इस संघर्ष को जीवन में बदल सकती थी ।
धीरे-धीरे उसने रास्ते तलाश करने शुरू किए । एक दिन पंचायत के प्रधान ने उसे आश्वासन दिया कि वह उसे स्कूल में चपरासी लगवा देगा । उसे इस अंधेरे में उजाले की किरण दिखाई दी।
बड़ी जद्दोजहत के बाद उसे गांव के स्कूल में पार्ट टाइम चपरासी की नौकरी मिल गई । इस नौकरी के लिए सासू मां और पति ने बहुत कोशिश की कि उसे नौकरी न मिले इसके लिए वे प्रधान से झगड़े भी।
परंतु परमात्मा ने उसके बच्चों के लिए रोटी का जुगाड़ भी तो करना था….।
धीरे-धीरे उसका जीवन पटरी पर आने लगा था।
पार्ट टाइम नौकरी के बाद वह रेगुलर हो गई। बच्चे कब बड़े हो गए ,पढ़ लिख गए, पता ही नहीं चला। इन सालों में उसकी सासू मां और पति भी इस दुनिया को छोड़कर चले गए।
अब सारा घरबार जगह -जमीन उसकी थी। पति सरकारी विभाग में मजदूर थे। उनकी पेंशन भी उसे मिलने लगी…. । जिसने सारी उम्र एक रुपया हाथ पर नहीं रखा था अब उसकी कमाई उसके हाथ आ रही थी । अब उसके पास पैसों की कोई तंगी नहीं थी…।
कठिन संघर्ष में से निकल कर उसका जीवन एक बार फिर अंधेरी रात के बाद सुबह की मानिंद उजला होने लगा था… ।
अतीत से वर्तमान तक जिए एक-एक पल की स्मृति उसके मानस – पटल पर किसी फिल्म की रील की भांति सरक रही थी। उसे संतोष था कि उसने जीवन के अंधेरों से लड़कर अपने हिस्से का उजाला हासिल कर लिया था….।
तभी ऑफिस की घंटी बजी । घंटी की आवाज जैसे ही उसके कानों में गूंजी वह अतीत के ख्यालों से एकदम बाहर आ गई । गहरी सांस लेते हुए वह जैसे किसी सपने से बाहर आ गई हो। उसने सामने नजर दौड़ाई बारिश थम गई थी अगल-बगल फैली हुई धुंध छंट गई थी । बादलों की ओट से सूरज झांकने लगा था । वह एकदम उठकर ऑफिस में चली आई और साहब से बोली-” सर क्या करना है”? सुप्रिटेंडेंट साहब ने कहा – “ये फाइलें प्रिंसिपल साहब के टेबल पर रख दो ,”और वह फाईलें उठाकर प्रिंसिपल ऑफिस चली गई….।

— अशोक दर्द

अशोक दर्द

जन्म –तिथि - 23- 04 – 1966 माता- श्रीमती रोशनी पिता --- श्री भगत राम पत्नी –श्रीमती आशा [गृहिणी ] संतान -- पुत्री डा. शबनम ठाकुर ,पुत्र इंजि. शुभम ठाकुर शिक्षा – शास्त्री , प्रभाकर ,जे बी टी ,एम ए [हिंदी ] बी एड भाषा ज्ञान --- हिंदी ,अंग्रेजी ,संस्कृत व्यवसाय – राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में हिंदी अध्यापक जन्म-स्थान-गावं घट्ट (टप्पर) डा. शेरपुर ,तहसील डलहौज़ी जिला चम्बा (हि.प्र ] लेखन विधाएं –कविता , कहानी , व लघुकथा प्रकाशित कृतियाँ – अंजुरी भर शब्द [कविता संग्रह ] व लगभग बीस राष्ट्रिय काव्य संग्रहों में कविता लेखन | सम्पादन --- मेरे पहाड़ में [कविता संग्रह ] विद्यालय की पत्रिका बुरांस में सम्पादन सहयोग | प्रसारण ----दूरदर्शन शिमला व आकाशवाणी शिमला व धर्मशाला से रचना प्रसारण | सम्मान----- हिमाचल प्रदेश राज्य पत्रकार महासंघ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पुरस्कृत , हिमाचल प्रदेश सिमौर कला संगम द्वारा लोक साहित्य के लिए आचार्य विशिष्ठ पुरस्कार २०१४ , सामाजिक आक्रोश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में देशभक्ति लघुकथा को द्वितीय पुरस्कार | इनके आलावा कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित | अन्य ---इरावती साहित्य एवं कला मंच बनीखेत का अध्यक्ष [मंच के द्वारा कई अन्तर्राज्यीय सम्मेलनों का आयोजन | सम्प्रति पता –अशोक ‘दर्द’ प्रवास कुटीर,गावं व डाकघर-बनीखेत तह. डलहौज़ी जि. चम्बा स्थायी पता ----गाँव घट्ट डाकघर बनीखेत जिला चंबा [हिमाचल प्रदेश ] मो .09418248262 , ई मेल --- [email protected]

Leave a Reply