न लिखने की मजबूरी
सामने आ गया बहुत बड़ी मजबूरी,
सच नहीं लिखना था जरूरी,
उस दिन मेरे झूठे आत्मसम्मान को
पड़ गया कसकर घूंसा,
पैसे वालों ने अक्षरशः न लिखने के लिए
जब मेरे मुंह में बड़ा रकम ठूंसा,
सच्चाई से मुझे कोई मतलब नहीं
ये सब जाए भाड़ में,
अब झूठ से कर ली है यारी
और सच को फेंक दिया कबाड़ में,
सोचता हूं जब सही तरीके से
हो जाऊं अपने पैरों पर खड़ा,
अपनी ही नजरों में कभी हो जाऊं बड़ा,
तब सच की गठरी खोलूंगा,
यहां डर भी बना रहेगा कि
कैसे उनके सामने अपना मुंह से बोलूंगा,
तब मैं आदी हो चुका रहूंगा झूठ का,
अहसास होगा सिर्फ नाकारों के वजूद का,
अब मैं खुद की नजरों में काला दिखता हूं,
इसीलिए माफ करना दोस्तों
मैं अब सच नहीं लिखता हूं।
— राजेन्द्र लाहिरी