सामाजिक

महिला प्रगति में बाधक- दहेज, मेहर व निर्वाह भत्ता

आचार्य प्रशान्त किशोर जी की पुस्तक ‘स्त्री’ पढ़ते समय एक वाक्य ने ध्यान आकर्षित किया, ‘ये दो चीज हैं जो जुड़ी हुई हैं एक-दूसरे से और दोनों को खत्म होना चाहिए। एक डाओरी (दहेज) और एक एलीमनी (निर्वाह निधि)। दोनों बहुत ही घटिया चीजें हैं और दोनों में ही स्त्रियों का ही पतन है।’ आदरणीय आचार्य जी के इस वाक्य ने मुझे विचार करने पर और इस आलख को लिखने के लिए प्रेरित किया। अतः इस आलेख का श्रेय भी उनको ही जाता है। मैं आदरणीय आचार्य जी की इन पंक्तियों को साभार यहाँ ले रहा हूँ। आशा है यह काॅपीराइट नियमों का उल्लंघन नहीं करता होगा। यदि ऐसा है भी तो आदरणीय आचार्य जी इसे अपवाद मानकर जनहित में क्षमा कर देंगे।

दहेज की आलोचना दीर्घकाल से की जाती रही है, किन्तु निर्वाह निधि के बारे में इस प्रकार के विचार कम से कम मैंने प्रथम बार किसी प्रबुद्ध व्यक्ति के पढ़े हैं। इस्लाम में निकाह के समय निर्धारित किया जाने वाला मेहर भी कुछ इसी प्रकार का है। मेहर में शादी के समय ही दुल्हन को दिए जाने वाले धन का निर्धारण होता है। दहेज और मेहर में अन्तर यह है कि दहेज लड़की के पिता द्वारा दिया जाता है, जबकि मेहर की रकम दूल्हे द्वारा देय होती है। पति मेहर की रकम देकर शादी से निकल सकता है।

किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए शिक्षा एक मूलभूत आवश्यकता है। शिक्षा ही वास्तव में एक प्राणी को मानव व्यक्तित्व प्रदान करती है। शिक्षा के बाद व्यक्ति की पहचान महत्वपूर्ण होती है। पहचान समाज में स्वीकृत स्थान है। इसके बाद विचार करें तो व्यक्ति के द्वारा किए जाने वाले कर्म उसको समाज में सम्मान व महत्व प्रदान करते हैं। कर्मो के प्रतिफल स्वरूप ही सम्मान व सम्पत्ति का सृजन होता है। बिना कर्म के जो कुछ भी प्राप्त होता है, उसके हम अधिकारी नहीं होते। वह हमें सहयोग, दान, दहेज, मेहर या छात्रवृत्ति के रूप में प्राप्त हो सकता है, उसे जो भी नाम दे दिया जाय। कहने की आवश्यकता नहीं है बिना कर्म के प्राप्त सहयोग, जिसे किसी भी नाम से जाना जाय, आत्म सम्मान, आत्मबल व स्वाभिमान का सृजन करके किसी का भी सशक्तीकरण नहीं करता। बिना कर्म के प्राप्त लाभ हमारी बेचारगी को ही प्रकट करते हैं।

बिना कर्म प्राप्तियाँ हमें कभी भी प्रगति का पथिक नहीं बनातीं, यदि उनका सही तरीके से अपने विकास के लिए प्रयोग नहीं किया तो अवनति की ओर ही ले जाती हैं। बिना कर्म प्राप्त होने वाला धन या बिना मूल्य चुकाए प्राप्त की गईं सुविधाएं मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना है। मुफ्तखोरी न समाज के हित में है और न ही व्यक्ति के। प्रगति पथ प्रशस्त नहीं होता वरन बाधित ही होता है। प्रगति पथ स्वयं के कर्मो से ही प्रशस्त हो सकता है।

अब विचार करें। जिस परिवार में हमने जन्म लिया है। उस परिवार के सदस्य के रूप में हमारा पालन-पोषण होता है। परिवार के वातावरण के अनुसार हमारी शिक्षा व संस्कार हमारे व्यक्तित्व को ढालते हैं? यही नहीं हमारे पूर्वजों के द्वारा अर्जित संपत्ति में परिवार के सदस्य के रूप में हमारा भाग भी हमें मिलता है। इसमें लिंग के आधार पर कोई भेद नहीं होना चाहिए। यदि किसी भी प्रकार का भेदभाव होता है, वह परिवार व समाज को कमजोर ही करता है।

सामान्यतः लड़कियों को शिक्षा व पैतृक संपत्ति में भाग दोनों से ही वंचित किया जाता रहा है। यह सब संस्कारों व त्याग के रूप में महिलाओं का महिमामण्डन करते हुए किया जाता रहा है। सर्वप्रथम लड़कियों को पराया धन अर्थात दूसरे घर की धरोहर कहकर उसको पोषण, शिक्षा व संपत्ति के अधिकार से वंचित किया जाता रहा है। पैतृक संपत्ति में अधिकार से वंचित करके उसे कुछ उपहार दिए जाते हैं, जिन्हें दान-दहेज का नाम देकर, घर से दूध में से मक्खी की तरह निकालकर एक अनजान व्यक्ति व परिवार के साथ बांध दिया जाता है। यही नहीं उसके साथ यह भी कहा जाता है कि उस घर में डोली जा रही है, अर्थी ही निकलनी चाहिए अर्थात मायके में उसको आने का कोई हक नहीं है।

महिलाओं को सर्वप्रथम उचित पोषण से वंचित करके उन्हें कमजोर कर दिया जाता है। उनके लिए निर्धारित सौन्दर्य संबन्धी मानदण्ड उन्हें कोमलांगी बनने को प्रेरित करते हैं। कमजोरी ही उनका सौन्दर्य मानी जाती है। उन्हें सिखाया जाता है कि सबको खिलाकर ही बचा हुआ खाना है। यह कैसी संस्कृति है कि महिलाओं को भोजन से ही रोकती है अर्थात शारीरिक रूप से कमजोर करती है। उसके बाद शिक्षा दी नहीं जाती, दी जाती है तो ऐसी शिक्षा दी जाती है जो आजीविका के लिए अधिक उपयुक्त नहीं रहती। उनसे कहा जाता रहा है कि तुझे कौन सी नौकरी करनी है? संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया जाता, दहेज दिया जाता है अर्थात आपको पिता के घर में कोई अधिकार नहीं है। कुछ उपहार देकर अहसान किया जा रहा है। इन उपहारों को भी दहेज के नाम पर गैर कानूनी करार दिया जाता है। कुछ समाज के तथाकथित ठेकेदार इसको गरियाकर ही अपने आपको समाजसेवक सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। यथार्थ यह है कि पैतृक संपत्ति में हिस्सा दिए बिना दहेज को बंद करने की बात करना महिलाओं के साथ अन्याय और अत्याचार दोनों ही है।

तार्किक बात है कि जिस घर में जन्म लिया है, उस घर में संपत्ति का अधिकार नहीं है तो जिस घर में खाली हाथ आई है, उस घर में भी संपत्ति का अधिकार नहीं मिल सकता। तार्किक बात है कि पति-पत्नी को लाइफ पार्टनर अर्थात जीवन के साझीदार कहा जाता है। साझेदारी का सामान्य आधार साझी पूँजी लगाकर साझा लाभ प्राप्त करना है। यदि पूँजी नहीं है तो आप कर्मचारी तो बन सकते हैं, साझीदार नहीं बन सकते। बिना पूँजी के साझीदार बनाकर लाभ में हिस्सा प्राप्त करना तो पूँजी लगाने वाले के साथ अन्याय होगा ना? बिना पूँजी लगाए, आप वेतन प्राप्त कर सकते हैं, स्वामित्व और लाभ नहीं।

कितनी भी आदर्शो की बात कर ली जाएं। कितने भी कानून बना लिए जाएं। जब तक तार्किक व्यवस्थाएं नहीं होंगी। महिलाएं स्वयं सक्षम नहीं होंगी। स्थितियाँ न केवल इसी तरह की बनी रहेंगी, वरन और भी बदतर होंगी। विवाह संस्था ही समाप्त हो जाएगी। कानूनों के डर से लड़के शादी करना ही पसंद नहीं करेंगे।

शादी के साथ पैतृक संपत्ति में हिस्सा नहीं है तो ससुराल में भी हिस्सा नहीं मिल सकता। मायके से दहेज दिया जाता है तो ससुराल में भी जीवन निर्वाह का ही अधिकार होगा। संपत्ति का अधिकार वहाँ भी नहीं मिल सकता। यदि अलग होना पड़ता है, तो जीवन निर्वाह निधि का प्रावधान कानून में किया गया है। इस्लामिक व्यवस्था में मेहर मिल जाएगा। इस प्रकार दहेज हो, मेहर हो या जीवन निर्वाह निधि, ये सभी महिला को दोयम दर्जे का ही सिद्ध करते हैं। यदि वह सक्षम है, सशक्त है, तो उसे किसी भी प्रकार की सहायता क्यों चाहिए? उसे अपने आपको सक्षम व पुरूष के बराबर सिद्ध करना है तो उसे अपनी क्षमता दिखानी होगी। सर्वप्रथम उसे माता-पिता के घर में अच्छा पोषण- शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, शैक्षिक व आध्यात्मिक प्रदान करने के साथ-साथ उसे आर्थिक रूप से सक्षम बनाना होगा। उसे अपनी आजीविका कमाने में सक्षम होना होगा, स्वाबलंबी होना होगा, आत्मनिर्भर होना होगा।

महिलाओं को सक्षम बनने के लिए, अपने आपको सशक्त बनाने के लिए दहेज को ठुकराना होगा। पैतृक संपत्ति में अपना भाग, बिना इसकी चिंता किए कि भाई बुरा मान जाएंगे या मायका बंट जाएगा, प्राप्त करना होगा। जो परिवार पैतृक संपत्ति में उसके भाग को ही मार रहा है, यह स्पष्ट रूप से बेईमानी है। ऐसे परिवार या ऐसे भाइयों का क्या करना? ऐसे भाइयों का तो न होना ही अच्छा। दूसरे अपने आपको आजीविका कमाने में सक्षम होना होगा। इसी से स्वाभिमान, आत्मसम्मान, आत्मविश्वास प्राप्त हो सकेगा। इसी से परिवार व समाज में सम्मान व मान्यता मिल सकेगी। त्याग और तपस्या तो बनावटी आदर्श हैं। आप कुछ त्याग तभी तो कर पाओगे, जब आपके पास कुछ होगा। अपने आपको सक्षम बनाकर कहना होगा। हमें आपसे निर्वाह निधि नहीं चाहिए। आपको आवश्यकता पड़े तो हम आपको निर्वाह निधि देंगी। जब तक दहेज, मेहर और निर्वाह निधि के दुष्चक्र में फंसकर महिलाएँ, अपने आपको कमजोर सिद्ध करती रहेंगी। अपनी प्रगति को स्वयं ही बाधित करती रहेंगी। उत्तरदायित्व विहीन अधिकार की माँग के स्थान पर अपने आपको सक्षम बनाकर अधिकारों का सृजन करना होगा। तभी वास्तविक सशक्तीकरण हो सकेगा।

डॉ. संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी

जवाहर नवोदय विद्यालय, मुरादाबाद , में प्राचार्य के रूप में कार्यरत। दस पुस्तकें प्रकाशित। rashtrapremi.com, www.rashtrapremi.in मेरी ई-बुक चिंता छोड़ो-सुख से नाता जोड़ो शिक्षक बनें-जग गढ़ें(करियर केन्द्रित मार्गदर्शिका) आधुनिक संदर्भ में(निबन्ध संग्रह) पापा, मैं तुम्हारे पास आऊंगा प्रेरणा से पराजिता तक(कहानी संग्रह) सफ़लता का राज़ समय की एजेंसी दोहा सहस्रावली(1111 दोहे) बता देंगे जमाने को(काव्य संग्रह) मौत से जिजीविषा तक(काव्य संग्रह) समर्पण(काव्य संग्रह)