कविता

आत्मलीन

जीविका मनुष्य की सदैव सत्य राह हो।
द्वेष त्याग कर्म भाव चित्त में अथाह हो।।
व्यक्ति का कहा-सुना विचार में न ध्यान दे।
नित्य कर्म धर्म में निमग्नता समान दे।।

गोल घूमती धरा टिकी हुई जहाँ धुरी।
देखते सदैव ईश भावना भली बुरी।।
हे मनुष्य चेतना असीम शक्तिमान हो।
विश्व के विकास में नवीन शोध ज्ञान हो।।

स्वार्थ के जहान में रहे नहीं सगे कभी।
क्रोध रोम में भरे लहू धरा लगे कभी।।
लक्ष्यहीन ये मनुष्य छद्म झूठ को चुने।
जिंदगी तनावयुक्त पीर जाल सा बुने।।

हे मनुष्य एक एक श्वांस भी अमूल्य है।
नित्य योग साधना समग्र शांति तुल्य है।।
जन्मभूमि भारती सदैव कीर्ति नाम हो।
जीविका मिले जहाॅं सनेह प्राप्त दाम हो।।

— प्रिया देवांगन “प्रियू”

प्रिया देवांगन "प्रियू"

पंडरिया जिला - कबीरधाम छत्तीसगढ़ [email protected]