गीत/नवगीत

क्षरित संस्कृति

मेरा गाँव भी अब शहर हो गया है।
प्रकृति से बहुत दूर घर हो गया है।

बचपन में खेला, वह पीपल कहाँ है
घने वट की छाया का, आँचल कहाँ हैं
सूरज भी अतिशय प्रखर हो गया है।

नदियाँ हैं सूखी, सरोवर पटे हैं
उजड़ा – सा उपवन, पक्षी घटे हैं
हवा में प्रदूषण जहर हो गया है।

युवा धुत पड़े हैं, कैसा नशा है
बच्चे अकेले हैं, क्या दुर्दशा है
भारी हुआ पल, पहर हो गया है।

खण्डित हैं परिवार, धत आचरण हैं
संबंध पर स्वार्थ के आवरण हैं
क्षरित संस्कृति का असर हो गया है।
मेरा गाँव भी अब शहर हो गया है।

— गौरीशंकर वैश्य विनम्र

गौरीशंकर वैश्य विनम्र

117 आदिलनगर, विकासनगर लखनऊ 226022 दूरभाष 09956087585

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