गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मुहोब्बत में जो मेरी ओर कभी थी सरकती चुनरी।
अभी भी पास मेरे है तेरी बह मख़मली चुनरी।
तेरे गोरे बदन की ख़ूबसूरत शाख़ के ऊपर,
ललक की प्यास अन्दर मचल के है लपकती चुनरी।
तेरे कानों में झुमके हैं कि जैसे धान की बाली,
कुदुमनी फूल सी गर्दन के ऊपर मचलती चुनरी।
समय की रीति-नीति में फर्ज़ अपने निभाती है,
ग़मीं भीतर ख़ुशी भीतर अलग ही बिचरती चुनरी।
पटारी से कोई सपनी जैसे बल खा के निकले है,
एैसे जूड़े में अटकी धीरे-धीरे सरकती चुनरी।
कि पैडूलम की भांति समय की तालिका बन कर,
मटकती चाल में फिर पीठ नीचे लमकती चुनरी।
परांदे नज़र नहीं आते कि लम्बी चोटी नहीं दिखती,
भू मण्ड़ल की सर्मपणशीलता में बिलखती चुनरी।
घटा घनघोर चढ़ जाए तो साकी भर के पा देवे,
छलकते जाम अन्दर नज़र आए छलकती चुनरी।
मुहोब्बत चीज़ है एैसी कि रूह के साथ रहती है,
कि धड़कन की तरह धड़कन में बन कर घड़कती चुनरी।
मुसीबत के बराबर हो के अपने हक़ को छीने है,
कचहरी र्कार्ट के दर पर है जब भी गर्ज़ती चुनरी।
ज़माने का वह शिष्टाचार, सभ्याचार बन जाती,
पिता की लाज, मां की शरम को जब समझती चुनरी।
कोई कानून एैसा भी बने कि एैसा फिर ना हो,
बुरे हालात में फंदा बना कर लटकती चुनरी।
अभी भी बालमा तेरा कोई इंतजार करता है,
कि सूनी राह के पीपल पर पुरानी लटकती चुनरी।

— बलविंदर बालम

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409