ग़ज़ल
चाहत का ऐसा नज़राना,सच कहता हूँ ठीक नहीं।
रोज़ गली में आना जाना,सच कहता हूँ ठीक नहीं।
इश्क-ए-अंदाज़ समझती है,वैसे ये दुनिया सारी,
दर्पण से घंटों बतियाना ,सच कहता हूँ ठीक नहीं।
जज़्बातों को काबू करना,दिलकश फितरत होती है,
मिलना करके रोज़ बहाना,सच कहता हूँ ठीक नहीं।
रूप खुदा की नेमत प्यारी ,कुछ तो परदेदारी रख,
सबको ऐसे बदन दिखाना,सच कहता हूँ ठीक नहीं।
कहा-सुनी होती ही रहती,अक्सर आपसदारी में,
पर रिश्तों को भेंट चढ़ाना,सच कहता हूँ ठीक नहीं।
कहाँ नफ़ा नुकसान सोचता,खुद्दारी की चिंता कर,
सबके पैरों में बिछ जाना,सच कहता हूँ ठीक नहीं।
जिम्मेदारी जब ली उसको,थोड़ा-बहुत निभाओ तो,
केवल मन की बात सुनाना,सच कहता हूँ ठीक नहीं।
डाॅ बिपिन पाण्डेय