कविता

प्रकृति के अंश

एक पत्थर से जैसे ही उसने ठोकर खाया,
उस पाषाण को उसने उठाया,
हृदय और माथे से लगाया,
और बोला कि अच्छा हुआ कि
मेरा पैर आपमें लगा
यदि आप खुद आकर मेरे पैर में लगे होते
तो आज मेरा पग टूट गया होता,
कहीं बैठे बैठे मैं उस पल को रोता,
प्रकृति के नियमों से चलने वाला हूं,
स्वार्थ के लिए उसे नहीं छलने वाला हूं,
इस तरह से हुई होगी
पत्थरों को पूजने की शुरुआत,
प्रकृति को पूजने की आगाज,
जो आज भी जारी है आदिवासियों में,
धरती के मूलनिवासियों में,
तब कुछ चालाकों के मन में आया होगा विचार,
पाषाणों को दे दिया होगा आकर,
और बोला होगा साक्षात साकार,
जो है दुनिया को चलाने वाला निराकार,
फिर डर डर कर रहने वालों पर
हुआ होगा पहला प्रहार,
तब प्रारंभ हुआ होगा डर का व्यापार,
इस तरह लोग मानने हो गए मशगूल,
पर्यावरणीय नियमों को भूल,
प्रकृति का अंश,
रूप बदल देने लगा दंश,
जो सतत जारी है,
पता नहीं कब तक के लिए।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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