आवंटित
मंदिर से लौटते हुये बहुत दिनों बाद सुष्मिता को सामने देख कविता ने कहा, “कैसी हो? तुम्हें स्वस्थ देखकर बहुत अच्छा लगा। तुमसे एक शिकायत है कि तुमने मुझे नहीं बताया।”
चौंकती हुयी सुष्मिता ने उत्तर दिया, “तुम्हें कैसे पता चला कि मैं अस्वस्थ थी? यह कोई अच्छा समाचार नहीं था कि सबको सूचित करती।”
“सुष्मिता! तुम्हें क्या लगा कि तुम नहीं बताओगी तो मुझे पता नहीं चलेगा? मैं तुम्हारी अच्छी सहेली हूँ पर इस बात का दुःख हुआ कि मैं तुम्हारी विश्वासपात्र नहीं हूँ। मुझे यह बात शीला से ज्ञात हुयी।”
“अच्छा ..”
“हाँ, याद आया कि मेरे एक रिश्तेदार के पिताजी को भी कैंसर ही गया था। लाखों कोशिशों के बावजूद उन्हें तीन साल तक ही जीवित रख पाये। अपना ध्यान रखना।”
कविता की बात सुनकर सुष्मिता के अंदर झनाक की ध्वनि सुनायी दी। पंक्ति स्मरण हो आयी – रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
— डॉ. अनीता पंडा ‘अन्वी’