गीतिका/ग़ज़ल

रातभर

स्वप्न मधुरिम सताते रहे रातभर।
सुप्त मन को जगाते रहे रातभर।

न ही भूकंप था, न ही आँधी चली
पेड़ क्यों थरथराते रहे रातभर।

गीतिका, गीत, नवगीत रच न सका
प्रेमधुन गुनगुनाते रहे रातभर।

आ न पाई अधर तक हृदय की व्यथा
अश्रु गाथा सुनाते रहे रातभर।

पुष्प का चित्र सुन्दर बना ही नहीं
कल्पनाएँ सजाते रहे रातभर।

व्यर्थ में मत जलो तम – हरण के लिए
जुगनुओं को बताते रहे रातभर।

कल भी सूरज चमकता रहे तेजमय
देव – देवी मनाते रहे रातभर।

— गौरीशंकर वैश्य विनम्र

गौरीशंकर वैश्य विनम्र

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