रातभर
स्वप्न मधुरिम सताते रहे रातभर।
सुप्त मन को जगाते रहे रातभर।
न ही भूकंप था, न ही आँधी चली
पेड़ क्यों थरथराते रहे रातभर।
गीतिका, गीत, नवगीत रच न सका
प्रेमधुन गुनगुनाते रहे रातभर।
आ न पाई अधर तक हृदय की व्यथा
अश्रु गाथा सुनाते रहे रातभर।
पुष्प का चित्र सुन्दर बना ही नहीं
कल्पनाएँ सजाते रहे रातभर।
व्यर्थ में मत जलो तम – हरण के लिए
जुगनुओं को बताते रहे रातभर।
कल भी सूरज चमकता रहे तेजमय
देव – देवी मनाते रहे रातभर।
— गौरीशंकर वैश्य विनम्र