ग़ज़ल
चाह जिसकी थी वो मिला ही नहीं,
हक कभी फैसला हुआ ही नहीं।
नाखुदाओं से भर गई बस्ती,
अब कहीं एक भी ख़ुदा ही नहीं।
मौत आना है तब ही आएगी,
वक्त पहले कोई मरा ही नहीं।
झूठ कहकर तो बच गये सारे,
सच से लेकिन कोई बचा ही नहीं।
अपने भीतर ही खुद को देखो तुम,
इससे बेहतर तो आईना ही नहीं।
बात मंज़िल की क्यूँ वो करता है,
दो कदम राह जो चला ही नहीं।
अपनी ग़ज़लों से मुतमईन है जय,
कुछ शिकायत नहीं,गिला ही नहीं।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’