मन बंजारा
कितना समझाया मन को,
छोड़ नहीं है वह चंचलता,
अहं-दंभ में मारा-फिरता,
अपना नहीं पाता विनम्रता।
अपेक्षाएं उसकी बढ़ती जातीं,
उपेक्षाएं सिर चढ़ती जातीं,
चैन कैसे पाए मन बंजारा,
निंदाएं नित गढ़ती जातीं।
खुशी की तलाश में झूम रहा है।
यहां से वहां तक घूम रहा है,
दुःखों से घबराकर बेचारा,
मन बंजारा घूम रहा है।
— लीला तिवानी