कविता – तेरे शहर की
तेरे शहर की खुशबू को,
आज़ तक महसूस करती हूं।
तुम्हारी चाहत ही,
जिंदगी है मेरी,
इसकी सोहबत में हमेशा रहती हूं।
तुम्ही उम्मीद थे,
तुम्ही जिंदगी भी।
तुम्हारी चाहत ही,
रहेगी मेरी हमेशा की बंदगी।
आज़ कुछ भी नहीं है,
तुम्हारे सिवा मेरे पास।
फिर भी तुम्हीं एक शख्स हो,
जो हमेशा रहते हो,
मेरी जिंदगी में,
या यूं कहें आसपास।
कौन कहता है कि,
इन्सानी सियासत में,
हमेशा साथ-साथ रहनी ही चाहिए।
हमें बेहतर जिंदगी के लिए,
दूरियां भी बढानी चाहिए।
शहर क्या छूटी,
अरमानों ने क़सम खाली है दुरियां बढ़ाने के लिए,
पर मैं भी ज़िद पर अड़ा हूं,
नजदिकियां बढ़ाने के लिए।
घर-परिवार में,
बस एक हीं जिक्र किया जा रहा है आजकल।
दिवानगी हद से ज्यादा गुजरेगी कब अब यहां,
क्या जन्नत में ही पहुंचकर।
कुछ अफसाने ज़रूर पढ़ें,
यही मेरी दिली तमन्ना है।
इसके जज्बातों को लेकर कुछ ज़रूर कहना,
लगातार उम्मीद रखतीं हूं,
तुम कह सकते हो,
मेरी जिंदगी की सबसे उम्दा कामना है।
— डॉ. अशोक, पटना