कहानी – माँ
रजनी का पति उच्च पदासीन था। वह शादी से दस वर्ष बाद ही परमात्मा को प्यारा हो गया, अचानक हृदय गति रुकने से। उच्चाधिकारी होने के नाते घर का वातावरण, रहन सहन ऊँचे स्तर का था। रजनी शिक्षिता तो थी परन्तु उसने कोई भी नौकरी नहीं की थी।
रजनी का आठ वर्ष का एक लड़का था राजेश। वह अपने पुत्र की सुख-सुविधा के लिए तन-मन-धन से कुर्बान थी। उसने एक प्राईवेट कालेज में नौकरी कर ली थी। राजेश की खुशाी ही उसकी खुशी थी। एक माँ के फर्ज़ ही नहीं बल्कि पिता के फर्ज़ भी सहर्ष सहृदता से निभाती। राजेश उसकी ज़िंदगी थी, उसके सांसों की ज़रूरत, उसके मोह की क़ीमत, उसके नयनों की ज्योति। उनके लिए राजेश मन्दिर की भांति था तथा वह एक पुजारन की तरह उसकी सेवा सुश्रूषा में सब कुछ कुर्बान करने के लिए बंदगी को समर्पित।
वयस्क होकर राजेश उच्च शिक्षा आर्जित करके सरकारी पद के फर्ज़ निभा रहा था। रजनी ने अपने पुत्र की शादी धूमधाम एवं अपनी हैसियत से बढ़कर भारी स्वर्च से की थी। रिश्तेदारों में, शहर में, रजनी की कार्यगुज़ारी प्रशंसा की बुलंदी पर थी। राजेश की पत्नी सुन्दर, सुशील थी। वह भी सरकारी पद पर कार्यरत थी।
लगभग एक वर्ष के पश्चात रजनी के आंगन में पोते की आमद ने खुशियों के बंदनवार सजा दिए। रजनी की खुशी अम्बर को छुने लगी। वह परमात्मा का शुक्र करती कि उसको दूसरा जन्म देखने का अवसर मिला। पोता मानव का दूसरा जन्म होता है। उसने अपने पोते का नाम रवि रखा। नाम को सार्थिक करता हुआ, उसके जीवन में सवेरा ही सवेरा दस्तक दे रहा था।
समय हिरनी की भांति कुलाचे भरता हुआ भागता चला गया। रजनी का पोता लगभग दस वर्ष का हो गया था। वह पोते की प्रत्येक ख़्वाहिश पर जान देती थी। जिस तरह संसार में दादी-पोते का स्नेह-मोह होता है, उससे भी ज़्यादा। घर के प्रत्येक काम में रजनी अपनी हिम्मत को हर्षत से ज़रब देकर दौड़ती। पुत्र-वुधु की एक सेविका की भांति कार्य करती हुई खुशी की मांज़िल की ओर बढ़ती जाती, जैसे वह जन्नत की पर्याय हो।
रजनी सेवा निवृत हो गई। वह वृद्ध होने के बावजूद भी घर-बाहर को अनिवार्य कार्यो के लिए हाथ बंटाती न थकती। खुशी हृदय में हो तो थकावट पंख लगा कर उड़ जाती है। उसने अपनी सेवा निवृति के अवसर पर मिली समस्त धनराशि राजेश के नाम करवा दी।
रजनी अब लगभग 65 वर्ष की बहारें पार कर चुकी थी। उसको कई बीमारियों ने घेर लिया था।
ब्लड प्रेशर, शुगर, गुरदों की बीमारी, नज़र का कमज़ोर होना इत्यादि। अब उसको चलना भी मुशिकल लगता। आसरा भाल कर ही चलती। बैड चारपाई का आसरा ही उसकी ज़िंदगी बन गया।
एक दिन राजेश की पत्नी उसको प्यार तथा धैर्य से कहने लगी, मैंने कहा जी, माता जी सारा दिन खांसते रहते हैं। कई बीमारियां हैं, रवि उनसे ही खेलता रहता है। वह रवि को बार-बार चूमती रहती है, यह ठीक नहीं। मेरा ईशारा आप समझ ही गए होंगे। हम दोनें ड्यूटी पर चले जाते हैं, रवि स्कूल चला जाता है। थके मादे आकर माता जी को संभालना कितना मुश्किल होता है। कम-ज-कम मैं तों नहीं संभाल सकती। इन्सान के कुछ अपने भी मनोंरंजन होते है। आजकल नौकर रखने भी तो ठीक नहीं। तनख्वाह बहुत मांगते हैं। मैं तो कहती हूं कि माता जी को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं। वहां इनकी देखभाल भी ठीक होगी हम भी आज़ाद। आया-गया आज़ादी से रह सकता है। वहां इनका दिल भी लग जाएगा।
परन्तु मेरी बात सुन, जिस माँ ने अनेक कष्ट झेल कर हमको यहां तक पहुंचाया। अब उनको इस उम्र में वृद्धाश्रमा में छोड़ आएं। कोई अच्छी बात नहीं। समाज क्या कहेगा? रिश्तेदार क्या कहेंगे? पोते के साथ माँ का बहुत मोह-स्नेह है। उसके बगैर तो वह मर जाएगी। वह तो उसकी ज़िंदगी है। पोते के साथ उसका दिन चढ़ता है, रात होती है। माँ को आश्रम में भेजना ठीक नहीं।
परन्तु पत्नी ने इतना मज़बूर कर दिया कि राजेश को सारे हथियार फैंकने पड़े। एक दिन शाम को बिस्तर पर सरहाने तकिए की ढ़ारस लगा कर बैठी माँ के पास राजेश जा बैठा। कलेजे को सीने से बाहर निकाल कर, हिम्मत का आसमां बांध कर माँ को कहने लगा, माँ एक बात करनी है।
हां, बेटा, बनाओ, क्या बात है? तेरी कौन सी बात मैंने आज तक नहीं मानी बेटा, जल्दी बता क्या बात हैं?
माँ, क्या बताऊँ?
बता ना मेरा पुत्र, खुल कर बात कर, डर-डर के बात क्यों कर रहा पुत्र। आज तक तो एैसी घबराहट में मेरे साथ कभी बात नहीं की, बता मेरा पुत्र क्या बात है? मैं तेरी प्रत्येक शर्त पूरी करूंगी मेरे लाल! आखिर बात है क्या? जिसको जल्दी नहीं बता रहा।
ऊपर से राजेश की पत्नी भी आ जाती है तथा उसने हिचकचाहट के पंख कुतरते हुए दलेरी के साथ सय्याद की भांति कहा, मां जी, दरअसल बात यह है कि हम चाहते हैं आप वृद्धाश्रम में चली जाएं। वहां आपकी देखभाल अच्छी तरह से होगी। खर्च तो हम देंगे ही। घर में आपकी देखभाल अच्छी तरह से नहीं होती कई कमियां (त्रृटियां) रह जाती हैं। घर में आपकी देखभाल करनी मुश्किल होती है। हम चाहते हैं आपका वृद्धाश्रम की अच्छी सुविधायों में छोड़ आएं। आपका वहां दिल भी लगा रहेगा। आपको वहां मिलने आते रहेंगे।
मां ने हंसते हुए झट से कहा, हां, पुत्र में तैयार हूं। यह तो मैं भी सोचती हूं। महसूस करती हूं पुत्र, आप मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ आएं। मुझे कोई एतराज नहीं। आप बिल्कुल ठीक कहते हैं।
मां की डबडबाई चूल्हे जैसी आंखों से जैसे धूआं निकल रहा हो। उसने चारों ओर देखा, पुत्र-वधु को देखा, पोते की ओर देखा और नज़रे नीचे करते हुए खून के आंसू कलेजे के कासे में बहाती चली गई शायद अपने पति की याद में, जैसे पति उसको आर्शीवाद दे रहा हो, बल दे रहा हो, हिम्मत तथा धैर्य की शक्ति दे रहा हो।
पुत्र वधु ने जुर्रत से कहा, मां जी, आज शनिवार है तथा सोमवार हम आपको आश्रम में छोड़ आएं। मुझे कोइ एतराज नहीं, आप बिल्कुल ठीक कहते हैं।
रजनी पति को याद करके बुसक-बुसक कर कलेजे की आंखों के जरिए रो कर गुम-सुम सी हो गई। पुत्र-वधु की खुशी तथा सास के आंसू दो विपरीत दिशाओं का वर्तमान एक इतिहास को रचने जा रहा था। रात बिस्तर पर पड़ी रजनी सोच रही थी, काश! आज वह जिंदा होते, मेरी ओर कोई आंख उठा कर नहीं देख सकता था। वह घर मेरा होना था जो आज मेरा नहीं। मेरा तो कुछ भी नहीं है आज यहां। वह मन ही मन सोचने लगी, पुत्र-वधु से तो दूर हो सकती हूं परन्तु पोते से दूर जाना तो एक मौत (मृत्यु) है। रवि के बगैर में जिंदा नहीं रह सकती। रवि मेरा दिन भी, दोपहर भी, रात भी। मेरी नस-नस में रवि है।
वह सोचने लगी, परमात्मा कौन से जन्म का बदला ले रहा है मुझ से। जीते जी सब कुछ खो रहा है। माँ बाप बच्चों को संस्कार दे सकते हें, प्यार दे सकते हैं, सभ्याचार दे सकते हैं, शिष्टाचार सिखा सकते हैं परन्तु व्यावहारिक जिंदगी तो बच्चे स्वंय ही अपने आप से, समाज से, चौगिरदे से ही सीख सकते हैं, यहां माँ बाप क्या कर सकते हैं। अनिवार्य नहीं व्यावहारिक तौर पर शिक्षित बच्चे अच्छे हों। रजनी के मन में कई ख़्याल आते और परोक्ष हो जाते। जिंदगी के क्या अर्थ हैं, उसकी समझ से बाहर हो गए।
सोमवार को रजनी को वृद्धाश्रम में छोड़ आए। पोता गुम-सुम था, जैसे उसका कीमती जान से प्यार खिलौना गुम हो गया हो। कुछ बोल नहीं रहा था। उसने अपनी माँ से उदास मुद्रा में कहा, दादी माँ को वहां क्यों छोड़ आए हो? इतना कहने की देर थी कि उसकी माँ ने जोर से एक थप्पड़ उसके मुंह पर जड़ दिया। उसका जवाब माँ ने दे दिया था। वह बिलक कर रोता हुआ चुप हो गया।
दादी माँ के जाने से जैसे उसकी दुनिया लुट गई हो, जैसे चारों और अंधेरा छा गया हो, जैसे उसके हाथ-पैर सुन्न (सून्य) हो गए हों। जिस्म पत्थर हो गया हो तथा उदासी उसके जिस्म का हिस्सा बन गई हो।
रजनी अब वृद्धाश्रम में रहने लगी। वहां वह सुबह शाम मन्दिर में जाती, अपने पोते के दर्शन कृष्ण भगवान की मूर्ति में करने के लिए। कृष्ण भगवान की मूर्ति को चूमती, प्यार करती, देख-देख रोती, घुट-घुट कर छाती से लगाती। पूजा अर्चना करती ना थकती। अपनी ममता उडेल देती।
आश्रम में रहकर उसने धार्मिक प्रवचन शुरू कर दिए थे। उच्च शिक्षित होने के कारण, उसको धार्मिक ज्ञान बहुत था। सारा आश्रम उसका श्रद्धालु बन गया। सभी महिलायों में एक जींवत क्रान्ति खड़ी कर दी। जीवन के अर्थ ढूढ़ लिए। धार्मिक प्रवचन उसका आसरा बन गए। किस्मत को कोसना छोड़ कर उसने हिम्मत के भगवान हृदय में रख लिया। रजनी पति की याद कलेजे में लेकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ती चली गई।
कभी-कभी जब पुत्र वधु और पोता उसे मिलने आते तो वह पोते की दबी हुई भावनाओं को समझती परन्तु वह चुप रहती। पोते से दूरी बना कर रखती थी। कहीं मोह-ममता उसकी उदासी बन कर उसकी सेहत तथा पढ़ाई का नुकसान न कर देवे। जब पोता चला जाता तो वह कमरे में अकेली बैठ कर रोती रहती और फिर स्वयं को हौसला-धैर्य देकर फिर अपनी सारी टूटी हुई हिम्मत को इक्टठा करके झूठी सात्वना में उतर जाती।
इस तरह वृद्धाश्रम में कुछ वर्ष ही गुज़ारे थे कि रजनी सख़्त बीमार हो गई। रज़नी ने वृद्धाश्रम की प्रभारी महिला को विनय करते हुए कहा, मैं अपने पुत्र से मिलना चाहती हूं। उसको बुलाओ। रजनी के पुत्र को फोन पर संदेश दे दिया गया, राजेश आपकी माता जी सख़्त बीमार हैं। आपको मिलना चाहती हैं।
राजेश ने कहा, आज बुधवार है, मैं छुट्टी वाले दिन रविवार को मिलने आऊंगा।
रविवार को राजेश अकेला ही माँ को मिलने के लिए आया, तो राजेश ने माँ को देखते हुए कहा, माँ, आपने मुझे याद किया। सेहत तो ठीक है ना ?
हां, पुत्र ठीक ही हूं।
माँ ने कहा, पुत्र मैं तुझे कुछ कहना चाहती हूं।
हा, माँ बताएं।
पुत्र, यहा गर्मी बहुत है, यहां मेरे कमरे में एक ए.सी. लगवा दो, पंखे की हवा बहुत गर्म होती है। यहां रोटी ठंडी मिलती है, एक ओवन लगवा दे। खाना भोजन ठंडा होने की वजह से कई बार भूखा ही सोना पड़ता है। पुत्र, यहां गर्म पानी पीने को मिलता है, एक छोटी सी फ्रिज ला दे। यहां बैडॅ पुराने हैं, नींद नहीं आती, पुत्र, यह सब चीज़े ला दे।
राजेश माँ की बाते सुनकर आश्चर्य एवं अक्रोश से बिहबल होकर माँ से कहने लगा, माँ, कई वर्षो से तू यहां रह रही है। तूने कभी भी इन चीज़ों की पहले डीमांड नहीं की परन्तु अब जब के तू मरणासन्न दशा में है तो अब अन चीज़ों के लिए लालसा क्यों ? क्या ऐसा व्ययभार निरर्थक नहीं है।
माँ ने ममता और स्नेह से कहा, पुत्र, नहीं, यह बात नहीं हैं, यहां बहुत सी तकलीफें हैं। मुझे तेरा ख़्याल है पुत्र, क्योंकि तेरे बच्चों ने भी कल को तुझे यहां छोडने आना है। तुझे कोई तकलीफ ना हो मेरे लाडले।
— बलविंदर बालम