बाल कहानी

बाल कहानी : मन्नत के पौधे

शिशिर नदी के किनारे बैठा था। आज उसका मन हमेशा की तरह बहुत विचलित था। थोड़ी देर बाद उसे एक संत नदी की ओर आते हुए दिखाई दिया। वे शिशिर के पास आ कर बैठे।
शिशिर संत को बड़ी अचरज भरी निगाहों से देखने लगा। संत समझ गए कि यह बालक कुछ परेशान है।
संत ने शिशिर से पूछा- “बालक ! तुम कुछ चिंतित दिखाई दे रहे हो ?
शिशिर नतमस्तक होकर बोला- “हे संत शिरोमणि ! हाँ, सचमुच मैं बहुत चिंतित हूँ। मुझे अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल रहे हैं।”
संत शिशिर के सर पर हाथ रखते हुए बोले- “वत्स ! इस संसार में ऐसा कोई प्रश्न नहीं है, जिसका उत्तर न हो। प्रश्नों के साथ ही उत्तर की व्युत्पत्ति होती है। बस, हमें प्रश्न का उत्तर ढूँढने आना चाहिए। आखिर प्रश्न क्या है तुम्हारा ? बताओ।”
शिशिर ने संत के समक्ष अपनी बात रखी- “मैं कुछ ऐसा काम करना चाहता हूँ, जो कुछ अलग हो।”
“क्या अलग सा काम करना चाहते हो ? संत शिशिर की ओर हाथ बढ़ाते हुए बोले।
शिशिर कहने लगा- “नवरात्रि प्रारंभ होने वाली है। श्रद्धा-भक्ति के इस अवसर पर देवी-देवताओं को बेजुबान पशुओं की बलि चढ़ाई जायेगी। इसे मैं रोकना चाहता हूँ। इसके लिए मुझे आपका मार्गदर्शन चाहिए।”
हाथ जोड़े हुए शिशिर को देख संत ने कहा- “बस ! इतनी सी बात ! इसके लिए तुम जो कुछ भी करना चाहते हो, स्वयं ही शुरुआत करो।”
“वो कैसे संत श्री ! बताइए न।” शिशिर के मुखमंडल पर प्रसन्नता की लालिमा सी दिखाई दी।
संत बोले- ” पुत्र ! नवरात्रि के प्रथम दिवस से ही पौधा लगाना प्रारंभ कर दो।”
“फिर क्या होगा संतश्रेष्ठ ? शिशिर के माथे पर सिकनभरा प्रश्न उठा।
“पहले मेरी बातें सुनो बालक।” संत ने शिशिर को बीच में ही टोकते हुए कहा- ” एक तख्ती में “मन्नत का पौधा” लिख कर पौधे पर बाँध दो। फिर जो भी कार्य तुम करना चाहते हो वह पूर्ण हो जायेगा।” संत वहाँ से प्रस्थान कर गये।
दूसरे दिन शिशिर ने अपने घर के सामने एक पौधा लगाया और संत के कहे अनुसार पौधे का देखभाल करने लगा। गाँव के एक व्यक्ति ने शिशिर से पूछा- “अरे शिशिर ! ये क्या लिखे हो पौधे पर। मन्नत का पौधा ? शिशिर मुस्कुराते हुए बड़ी विनम्रतापूर्वक बोला- “जी काका जी। मैंने देवी माँ से जो मन्नत माँगी थी, वो पूर्ण हुई। सो उसकी याद में मैंने एक पौधा लगाया है, और लिखा है- मन्नत का पौधा।
“अरे…! देवी माँ से मन्नत माँगने पर तो हम बकरे की बलि देते है न ? और ये जरूरी भी तो है। तुम्हारा यह सब क्या है ?”
काका जी के पेट में शिशिर की बात कुछ पच नहीं रही थी। उसने शिशिर की पौधे की मन्नत वाली बात एक दूसरे व्यक्ति से कही। बात दूसरे से तीसरे व्यक्ति के पास चली गयी। इस तरह बात पूरे गाँव में जंगल की आग की तरह फैल गयी। दो-तीन दिन बाद गाँव वाले शिशिर के घर जा पहुँचे।
एक दिन सूर्योदय के समय शिशिर पौधे पर पानी डाल रहा था कि पीछे शोरगुल सुन रूक गया; और पूछा कि आप सभी यहाँ कैसे।
हुजूम में से एक बुजुर्ग बोले– “बेटा शिशिर हम सभी बेवकूफ हैं क्या, जो तेरे झाँसे में आ जाएँगे।”
“कैसी बातें कर रहे हैं दादा जी आप ? मैं कुछ समझा नहीं।” शिशिर ने कहा।
“अरे बेटा, हम हर साल देवी माँ को बकरे की बलि देकर मन्नतें पूरी करते हैं; और तुम इसे बदलना चाहते हो ?” पता नहीं, आजकल के तुम युवा हमारे रीति–रिवाजों को क्यों बदलना चाहते हो ? और ऐसा करना देवी माँ का अपमान नहीं है ? बुजुर्ग का स्वर तीखा हो चुका था।
शिशिर ने बड़े ही कोमल स्वर में जवाब दिया– “माफ कीजिएगा दादा जी ! मैंने यह बात न तो किसी को बताई है; और न हीं किसी को बताना चाहता हूँ। बस मुझे अपने फायदे के लिए किसी बेजुबान की जान लेना अच्छा नहीं लगता। अपनी मन्नत के लिए एक पौधा लगा रहा हूँ।”
काका जी बोले- “क्या सच में एक पौधे लगाने से तुम्हारी मनोकामना पूरी हो गई ?”
“जी काका जी। संसार में हर जीव देवी माँ की ही संतान हैं, तो भला वह अपने ही बच्चों की बलि कैसे लेंगी।” गाँव के लोगों पर शिशिर की बातों का धीरे–धीरे असर पड़ने लगा।
तभी एक व्यक्ति मुँह बनाते हुए बोला- “अरे भाई, मैं हर साल मन्नत माँगने से पहले एक बकरे की बलि देता हूँ। हर साल दस–बीस हजार खर्च करता हूँ; और तुम एक पौधे से ही अपनी मन्नत पूरी होने की बात कर रहे हो। तुम एक बेवकूफ हो, या फिर हमें बेवकूफ बना रहे हो।”
थोड़ी देर बाद बुजुर्ग व्यक्ति बड़े क्रोधित स्वर में बोले- “ठीक है शिशिर ! हम भी देखते हैं। यदि तुम्हारी बातें सच नहीं हुई तो इस पौधे को उखाड़ कर फेंकूँगा।”
“ठीक है दादा जी। और हाँ दादा जी सिर्फ मेरे पौधे उखाड़ने या बदला लेने की भावना से माँ को कुछ नहीं बोलना।” शिशिर ने कहा।
दादा जी मूँछे ऐंठते हुए वहाँ से चले गए। गाँव वाले भी प्रस्थान कर गये। कुछ लोग तो अपनी अंधविश्वास व दकियानूसी बातों पर अडिग रहे। कुछ लोगों को शिशिर की बातें भा गयी; उन्होंने भी एक–एक पौधा लगाना प्रारंभ किया।
कुछ दिन बाद उस बुजुर्ग व्यक्ति ने सच्चे मन से माता के दरबार में अपनी इच्छा रखी। उनकी बरसों की इच्छा आज पूर्ण हुई। वे फूले नहीं समा रहे थे। गाँव में घोषणा कर दी कि इस नवरात्रि से हम सब वचन देते हैं कि कभी किसी बेजुबान पशु-पक्षी की जान नहीं लेंगे। उनके स्थान पर “मन्नत का पौधा” लगाएँगे। और उसकी रक्षा करेंगे।
इस तरह देवी माँ के सामने सभी नतमस्तक होकर क्षमा माँगने लगे। और शिशिर को बुजुर्ग व्यक्ति बड़े गर्व के साथ कहने लगे कि आज शिशिर न होता, तो हमारा पाप बढ़ता ही जाता। हमें गर्व है बेटा तुम पर। परलोक गमन करने से पहले ही तुमने हमारी आँखें खोल दी।
आज शिशिर बहुत खुश था। वह मन ही मन संत के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहा था। गाँव में सर्वत्र हरे-भरे पेड़-पौधे अंगड़ाई लेते हुए हवा के साथ झूम रहे थे।

— प्रिया देवांगन “प्रियू”

प्रिया देवांगन "प्रियू"

पंडरिया जिला - कबीरधाम छत्तीसगढ़ [email protected]

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