व्यंग्य – दो सांड़ों की लड़ाई में
भारत एक कृषि प्रधान देश है। आजादी के बाद देश फसल की पैदावार के मामले में कितना संपन्न हुआ यह कृषि वैज्ञानिकों के लिए शोध का विषय है। लेकिन राजनीति की फसल खूब लहलहायी। देश में एक दल बना। फिर दूसरा दल बना। फिर उन दलों से अनेक दल बनते गये। फिर देश दलदल बन गया। जिसमें समय के साथ पैदा होनेवाला हर भारतीय धँसता गया। कृषि के लिए पशुधन की आवश्यकता थी। लोग गाय-बैल, भैंसा-भैंसी पालते थे। बैलों के उत्पादन के लिए सांसों की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है। सांड़ नहीं पाले जाते। उन्हें आवारा छोड़ दिया जाता है। क्यों? क्योंकि सांड़ आपस में लड़ते हैं। उनके लड़ने से बाड़ी उजड़ जाती है। राजनीति के सांड़ों के पुरुषार्थ ने अनेक बैल पैदा हुए । जो देश की एकता के लिए पद-यात्रा करते हैं। एकता भले ही पुष्ट ना हो पर सांड़ पुष्ट हो जाते हैं।
राजनैतिक सांड़ बहुत खतरनाक होते हैं। इनके सींग नहीं होते। खूंखार पंजे होते हैं । नुकीले दाँत होते हैं। ये लड़ते हैं तो बाड़ी नहीं, देश उजड़ जाता है। आज देश में दो सांड़ नहीं साज़ों का बाजार है। ये जब चाहें धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, पर्व-त्यौहारों के नाम पर भिड़ कर भाईचारे की फसल तबाह कर देते हैं। सांड़ के महायुद्ध में भारत बर्बाद हो रहा है। देशवासी कोल्हू के बैल बन गये हैं। घूम-फिरकर चुनावों में मतदान करते हैं। राजनीति के सफेद-लाल-हरे-नीले सांड़ फूलाकर फूँफकारते हुए लड़ते हैं। देश की फसल अगले चुनावों तक रूँदती-नष्ट होती रहती है।हम विश्व गुरू बनकर शांति के कबूतर उड़ाने की सोचते रहते हैं। मेरा भारत महान!!
आजादी के बाद देश के कृषि व्यवसाय में भयंकर गिरावट आयी है। बाबू जी दोहा सुनाते थे- उत्तम खेती मध्यम बान। अधम चाकरी भीख निदान।। अब उल्टे दिन देखने पड़ रहे हैं- उत्तम भीख, मध्यम बान अधम चारी कृषि निदान।। आजकल किसान खेती नहीं करना चाहता। क्यों? क्योंकि सांड़ों की लड़ाई में बाड़ी उजड़ जाती है।
कर्जदार होना सम्मान की बात मानी जाती है। भारत का किसान इसी वहम में कर्ज लेता है और अंत में बेचारा अपमान के घूँट पीकर मर जाता है। कृषि कर्म में आधुनिक यंत्रों ने बैलों को पछाड़ दिया है। किंतु सांडों के उत्पादन में गिरावट नहीं आने पाई। पंजाब हो या महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश हो या बिहार राजनैतिक सांड़ बिचौलिए बनकर किसानों की बाड़ी तहस-नहस कर रहे हैं। बैल संसद में कानून बनाते हैं और ये सांड़ उनकी धज्जियाँ उड़ा देते हैं। अगले दिन समाचार पत्र में कृषि मंत्री की फोटो के साथ पेड़ की डाल पर फंदे से लटके हुए किसान के नीचे राजनैतिक विज्ञापन की पंक्ति मोटे अक्षरों में लिखी होती है – मेरा भारत महान!
कृषि प्रधान भारत में फसल को हीरा-मोती के रूप में पैदा करने का मेरा भी सपना था।भारत कृषि प्रधान देश है-यह सूक्ति वाक्य बाल्यावस्था से मन में जड़ जमाए बैठा था। यही सोचकर मैं भी खेती-किसानी के सपने देखता था। बाबू जी शिक्षक थे। नेत्रहीन किंतु दूरदर्शी! आनेवाले समय में भारतीय किसान आत्महत्या करेगा इनका आभास उन्हें प्रेमचंद जी ने करवा दिया था। इसलिए इस बुरे सपने के प्रति मेरे मोह से डरते थे। व्यस्क होने पर मैं जमीन पर तो फसल नहीं उगा सका लेकिन घर के गमलों में तुलसी-फूल के पौधे रोप कर अपनी कृषि प्रियता का परिचय देता रहा। ‘भारतीय किसान’ पर निबंध -कविताएँ लिखकर अनेक पुरस्कार अनेक पुरस्कार अर्जित करता रहा। बेशक इससे किसानों के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन अपनी साहित्यिक धाक जमाती रही। खेती-किसानी का कीड़ा काट चुका था। हमारे बाप-दादा के पास जमीन तो थी नहीं। दिमाग की साहित्यिक भूमि उपजाऊ थी। उसमें मैंने साहित्य की की फसल बोने का प्रयास आरंभ किया। इस जमीन पर कोई भी साहित्यिक होरी अपनी फसल उगा सकता था। समय-समय पर इस बाड़ी में आम-अंगूर, सेव-संतरे, जाम-जामुन, केर-बेर सब फल-फूलते रहे। लेकिन एक गलती हो गई । मैं गाय-बैल -बकरियों के साथ सांड़ भी पाल बैठा। फिर क्या हुआ होगा? आप सोच सकते हैं । कहावत चरितार्थ हो गई-दो सांड़ों की लड़ाई में….!!!!
— शरद सुनेरी