गीत/नवगीत

गीत

रात जब भी चाँद का, बेंदा लगाती है
सच कहूँ बस प्रिय ,तुम्हारी याद आती है
उस पहर जब चांदनी, आंगन उतरती है
बस प्रतीक्षा में तुम्हारी,देह जलती है
दीप की लौ हर घड़ी तब थरथराती है
स्याह नभ में सप्तऋषि धूनी रमाते हैं
कामना को धैर्य की डोरी थमाते हैं
किंतु फिर भी नेह-गंगा वेग पाती है
दूरियों के बाण मन को, भेद जाते हैं
सुप्त पीड़ाओं की इक, ज्वाला जगाते हैं
द्वार की साँकल हवा ,तब खटखटाती है
जुगनुओं ने अनकही हर, पीर जानी है
आँसुओं की साक्षी ,बस रातरानी है
तारिका भी यह निगोड़ी मुंह बिराती हैं
भाग्यवश हम कुछ विषमताओं के मारे हैं
क्या कहें इन हस्तरेखाओं से हारे हैं
सोचकर ये आँख मेरी डबडबाती है
रात जब भी चाँद का, बेंदा लगाती है
सच कहूँ बस प्रिय ,तुम्हारी याद आती है

— वत्सला पाण्डेय