धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

छठ और बचपन 

केलवा के पात पर उग लन सुरुज देव…..

आखिरकार माँ भगवती अपने धाम पहुँच गईं। भारी मन से लोगों ने उन्हें अश्रुपूरित विदाई दी। अब दिवाली की तैयारी, एक अजीब सी उमंग है और और कहीं दूsssर से “उग हो सूरज देव भइल भिनसरवा…..की मधुर धुन कानों में मधुरस घोलने लगी। सारे बाजार सूप और दउरा से पट गए। हमारे घर में छठ पर्व शुरू से ही बनाई जाती थी यानी हम जब बहुत छोटे थे तब से मनाई जाती थी और हमारे खानदान का एक-एक सदस्य इस पवित्र पावन त्यौहार को करता था। माँ, बड़ी माँ, चाची, भाभी, बहन सभी। जब माँ छठ करती थी तो दीपावली के दूसरे ही दिन से छठ की तैयारी शुरू क्योंकि पापा टाटा मोटर्स उस वक्त टेल्को कहते थे हम, तो कंपनी के क्वार्टर में रहते थे जो किचन होता था उसे पूरी तरह से खाली करके किचन के समान को कहीं और शिफ्ट किया जाता था। फिर नल में पाइप लगाकर पूरे किचन की धुलाई होती थी। उसके बाद बिना नहाए कोई उसमें नहीं जाता था। पापा गेहूँ लेकर आते थे उसकी धुलाई होती थी और हमारे एरिया के सभी बच्चे नहा धोकर अपने-अपने घरों के गेहूं को छत पर जाकर सूखाते थे। यह काम भी कम रोमांचकारी नहीं होता था। उसके बाद दिन भर  पापा झोला उठाए सामान लाते रहते थे। घर में लगता था कोई उत्सव है। दिवाली की लाइट निकाली नहीं जाती थी, कुछ पटाखे भी बचा के रखे जाते थे। उसे छठ पर जलाते और छठ तक दिवाली की बतियां जली रहती थी। शुरुआत होती थी नहाए खाए से। मेरे पापा के सभी दोस्तों का घर में जमावड़ा हो जाता था फिर गेहूँ पिसाई। आटा चक्की तो रात भर चलता ही रहता  और आटा चक्की वाले भी इस पर्व की महत्ता को समझते थे तभी तो पूरे आटा चक्की की धुलाई करने के पश्चात ही सभी की गेहूँ के पिसाई होती थी। मेरी माँ दो मिट्टी के चूल्हे बनती थी एक खरना के लिए और दूसरा ठेकुआ बनाने के लिए। चूल्हा इंटा और मिट्टी से बनता था उसे लिप कर माँ तैयार करती थी, फिर पापा के दोस्त अशोक चाचा, घनश्याम चाचा, नरेंद्र चाचा, विद्या चाचा सभी अपने-अपने घरों से आम की सूखी लकड़ियाँ लाकर भर देते थे, और उनके घर के बच्चे उन सब घर की मां हमारे घर में। तीन दिन इनका जमावड़ा रहता था। इतना ही नहीं हर एक सदस्य छठ के काम को बढ़-चढ़कर करते थे। लगता ही नहीं था तो कौन किस घर का असली सदस्य है।

नहाय खाय में गोल दाना चवाल, चने कि दाल, लौकी कि सब्जी, कभी बचका भुजिआ चटनी भी बनता। ये सब शुद्ध घी में ही बनता। स्वाद क्या ही कहा जाये ये सब सूर्य देव कि कृपा।  फिर दूसरे दिन माँ आम का दतुवन करती और नहा धोकर निर्जला मिट्टी के चूल्हे पर दूध औँटाती और शुरुवात हो जाती खीर बनने की। गुड़ के खीर की महक से अंतस में एक श्रद्धा भाव जग जाता, फिर रोटी बनती इसमे घी लगाकर माँ केले के पत्ते पर खीर रोटी रख पूजा करती और प्रसाद ग्रहण करती। मान्यता ऐसी थी कि खरना करते वक्त कुछ आवाज नहीं होनी चाहिए। माँ के प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात सभी घर वाले प्रसाद ग्रहण करते।फिर खरना बीतते ही अगली सुबह तड़के  ही दूसरा चूल्हा आम की लड़कियों  जला ठेकुआ बनने का काम शुरू और चारों तरफ घी की खुशबू से वातावरण पावन पवित्र हो जाता था।ठेकुआ बनने का काम खत्म हो जाता, फिर दउरा की सजाई शुरू होती थी। जितने भी समान होते हैं छठ के सब उसमें डाले जाते थे और शाम को सब निकल पड़ते थे छठ के घाट की ओर खाली पैर बिना चप्पल के। पापा पीला धोती पहनते पी ले कपड़े में दौरा कोबांध सर पर रखते थे और इंख को अपने कंधे पर रख करके चलते थे। घर के सभी सदस्य खाली पैर जाते थे कोई चप्पल नहीं पहनता था और गीत “बहंगी लचकत जाए”के साथ घाट तक की यात्रा।घर से घाट तक में जो भीड़ और उत्साह था वह देखने लायक होती थी।पापा के सभी दोस्त उनके पूरे घर वाले बड़े उत्साह के साथ पूरा पर्व करते और घाट पर जाते। पुरे विधि विधान से संध्या अर्ध्य दी जाती। “सुगवा के मरबो धनुख से” गीत से पूरा वातावरण गुंजायमान होता था।पहला अर्घ्य देने के बाद,दूसरे दिन सुबह तड़के 3:00 बजे ही सभी लोग घर से बाहर घाट की ओर निकल जाते थे दूसरे अर्घ्य की तैयारी करने के लिए।”उगा हो सूरज देव भइले….. अप्रतिम अद्भुत अनमोल। छठ औरउस समय उत्पन्न हृदय के मनोभाव व्यक्त नहीं कर पा सकते। एक बचपन की बात याद आ गई सुबह वाले अर्ध्य के क्रम में जब पूजा हो रही थी तो हम और मेरी एक दोस्त बिंन्नी जरा घाट से इतर जाकर  घूमने लगे। थोड़ी दूर जाकर दिखा एक नचनिया जो पुरुष थे लेकिन वह स्त्री वेशभूषा में थे नृत्य कर रही थी। हम दोनों नृत्य देखने में पूरी तरह से व्यस्त हो गए और हमें खबर नहीं रहा की पूजा संपन्न हो चुकी है।जब पलट के देखे तो घाट से सभी वापिस जा रहे थे और हमारे परिजन कहीं दिखे नहीं क्योंकि हम थोड़े छोटे थे किसी तरह अपने घर पहुंचे। सभी बड़े मज़े लेकर ठेकुआ खा रहे थे। हमारे जो पड़ोस में चाची थीं कोई कढ़ी बड़ी  दे रहा है कोई बचका लाकर दे रहा है कोई सब्जी लाकर दे रहा है। इस तरह से एक पर्व संपन्न होता था।इस पर्व की जो कसक है यह वही समझ सकते हैं जिसके घर में यह व्रत होता है। फिर दीवारों पर आयपन लगाए जाते थे जो की गुलाबी रंग का होता था तो पता चलता था कि हां इनके घर में छठ हुआ है। इस पर्व की बात ही कुछ और है रोम रोम सिहर उठता है अतुल्य अनुपम छठी मैया। 

चलिए सब पुनः स्वागत करें  छठी माई की!

— सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]