कविता – आख़िर जालिम कौन
वक्त पर गुफ्तगू चल रही थी,
कुछ अफसाने ज़रूर पढ़ने की,
कोशिश की जा रही थी।
फिर एक बात बनी,
वक्त की ताक़त से मुलाकात हुई।
अन्त में समझ आया,
कुछ ही नया कर पाया।
वक्त पर ऐतबार ठीक नहीं है,
इसकी सोहबत में रहना,
बिल्कुल सही नहीं है।
तजुर्बा तो ज़िन्दगी को देने में,
सबसे पहले खड़ा रहता है
आतुर होकर अपने विचार व्यक्त करने में,
मदद करता है।
फिर भी सोहबत ठीक नहीं है,
तजुर्बा के मिनाह पर,
मासुमियत छिन कर,
बड़ी हौसला अफजाई करने की हिम्मत से,
मरहूम करते हुए,
आगे बढ़ने की राहों में,
बस रोड़ा पैदा कर,
मुश्किलें पैदा करता है।
इस दरम्यान हमें औरों को लेकर,
आगे बढ़ने की कोशिश करने में लगे रहना चाहिए।
तक़दीर बदलने में,
मेहनत जी-जान से जुट कर करनी चाहिए।
बस तक़दीर बदलने से,
कुछ अफसाने ही मिलेंगे यहां।
नज़रों से देखा जाए तो,
तरह-तरह की बातें ही,
सुनने को मिलेंगी इस जहां से बाहर जाने पर वहां।
इस कारण से इस दुनिया में,
जालिम कौन है बतानी होगी।
कद्र करते हुए आगे बढ़ने में,
इन्सानियत को बरकरार रखने की,
कहानी क्या बनेगी।
— डॉ. अशोक, पटना