गीतिका/ग़ज़ल

जाने कहाँ

शर्मोहया सब खो गई जाने कहाँ।
गुम हो गई परदानशीं जाने कहाँ।।
दुल्हन भी अब आती नही घूंघट निकाल।
चूनर सरक कर खो गई जाने कहाँ।।
दें दोष किसको हमने छोड़ी डोर है।
उठ कर गिरी गिरकर उठी जाने कहाँ।।
अपनों से ही हम हार जातें हैं यहाँ।
यारी गई खो आपसी जाने कहाँ।।
अब ढूंढ़तीं हैं नजरें भटका आदमी।
आया नहीं वो अजनबी जाने कहाँ।।
बढ़ जाते आँखों को झुका अब तो सनम।
बुझ सी गई वो तिश्नगी जाने कहाँ।।
जो मुस्कुरा कर करते थे स्वागत मेरा।
यूं गुम हुई वो बावरी जाने कहाँ।।

— प्रीती श्रीवास्तव

प्रीती श्रीवास्तव

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