संस्मरण – दीक्षित अंकल
जीवन में कुछ घटनाएं अमिट होती हैं, जिन्हें हम अपने अंतः में समेटे रहते हैं। वार्तालाप के माध्यम से या लेखनी के माध्यम से जब वह यादें अभिव्यक्त होती हैं तो संस्मरण कहलाती हैं। एक संस्मरण जो मेरे बाल्यकाल से जुड़ा हुआ है, आप पाठकों से साझा कर रही हूँ। सन 1976, हमारा संयुक्त परिवार एक पुराने किले नुमा इमारत में, वाराणसी में रहता था। जिस में प्रायः 1947 से पाकिस्तान से आए हुए लगभग 30 सिंधी परिवारों का बसेरा था। वे किराए पर वहाँ रहते थे। उसे आप मिनी सिंध भी कह सकते थे । सभी व्यापारी, मेहनती, परिवार थे,परंतु शिक्षा के प्रति कोई अनुराग न था। हमारा परिवार शिक्षित था मेरे पिता बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के मेडिकल कॉलेज में कार्यरत थे। पड़ोस के खाली पड़े भवन को पिताजी ने अपने एक मित्र को दिलवा दिया जो हिंदी भाषी ब्राह्मण परिवार से थे। हमारे परिवार की घनिष्ठता सभी से थी परंतु उपरोक्त ब्राह्मण परिवार सिंधी परिवारों की भाषा व संस्कृति समझने के लिए हमारे परिवार पर आश्रित था। एक दिन दीक्षित अंकल ने पिताजी से कहा- ” ‘नमस्कार’ सिंधी में कैसे करते हैं यह सिखा दो, ताकि धीरे-धीरे सभी लोगों से मेरा परिचय हो जाएगा। “
मेरे पिता, जिनका उस कॉलोनी में अच्छा वर्चस्व था, उन्हें ना जाने क्या सूझी । उन्होंने सिखाया
‘ भंजय ‘ अर्थात ‘नमस्ते’। ‘ मत्थो ‘ यानी ‘सुबह’। सुबह की नमस्ते हेतु ‘मत्थो भंजय’। शाम यानि ‘चेल्हि’ अतः शाम की नमस्ते हेतु ‘चेल्हि भंजय’ कहा जाता है।
मैं अवाक थी। अपने धीर गंभीर पिताजी से मुझे यह मजाक अपेक्षित न था। पर दो मित्रों के वार्तालाप में भय एवं संकोचवश मैंने व्यवधान देना उचित न समझा।
दूसरे दिन ही, सुबह- सुबह, मेरे फूफा जी लखनऊ से पधारे। दीक्षित अंकल ने उनका जोरदार स्वागत किया “अचो साईं, अचो। मत्थो भंजय। “
फूफा जी, जो कि खुद भी मजाकिया किस्म के इंसान थे, वे बोले – “हरे राम साईं। टंग भंजय।”
टंग माने? शायद दोपहर को टंग कहते होंगे, यह लोग। ऐसा अनुमान दीक्षित जी ने स्वतः लगा लिया।
रात होते ही ‘चेल्हि भंजय’, जैसे ही उन्होंने फूफा जी को कहा हम सबका हँसते- हँसते बुरा हाल था। फूफा जी अचानक बोल पड़े “सिर तोड़ा नहीं, कमर तोड़ने की बात करने लगे आप अब तो। “
दीक्षित अंकल को काटो तो खून नहीं। बोले “डॉक्टर से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वह गलत सिखाएंगे। जमाई बाबू, हम तो अब अपनी राम-राम ही कहेंगे। “
कालांतर में वह मत्थो यानि सिर, टंग यानी टाँग, चेल्हि यानी कमर एवं भंजय माने तोड़ दूँ, तो सीख ही गए परंतु अपने भाषा विज्ञान पकड़ शक्ति से 80% सिंधी भाषा भी उन्होंने सीख ली और मिनी सिंध का एक प्यारा सा हिस्सा बन गए।
— बृजबाला दौलतानी, आगरा