गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

अजब फरेबी जमाना हमको, ये रंग क्या -क्या दिखा रहा है
कहीं किसी को बना रहा है, कहीं किसी को मिटा रहा है

हरेक गली में है तेरी खुशबू, हरेक सड़क तेरे नाम से है
तेरे शहर का हरेक मुसाफिर, तेरा पता ही बता रहा है

जो ख्वाब तेरी नजर से देखे, वही हकीक़त में निकले झूठे
भरोसा जिसका किया भँवर में, वही मुझे अब डुबा रहा है

मैं तेरी यादों की अंजुमन से, छुड़ा के भागा था लाख दामन
मगर मैं जितना हूँ दूर तुझसे, तू पास उतना ही आ रहा है

नजर का धोखा है तेरी चाहत, मगर मनाने की आरजू में
अजीब सी कशमकश में दिल है, ये जागते को जगा रहा है

चमन में फैली ये कैसी वहशत, कि माली को भी खबर नहीं है
शिकारियों का जहाँ निशाना, वहीं परिन्दे उड़ा रहा है

हजार वादे किये वफ़ा के, कि बेवफाई नहीं करूँगा
मगर न आया यकीन उसको, वो दूर से मुस्कुरा रहा है

सभी से मिलता था सर झुकाकर, मोहब्बतों की कजा बनाकर
गुरुर से सर उठाया जबसे, तभी से ठोकर वो खा रहा है

दहकते सूरज की बारिशों से, बचाता है ‘साहू’ जो हमेशा
उसी शजर को सहन से अपने, बता दे तू क्यों हटा रहा है

— अरविन्द कुमार ‘साहू’

अरविन्द कुमार साहू

सह-संपादक, जय विजय

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