कविता

जागरुकता

धीरे-धीरे, ही सही
कुछ जागरुकता, तो आ रही है
और ज्यादा, बर्दाश्त, नही करेंगे
जनता सरेआम, चिल्ला रही है।

आज नही, तो कल, सरकारों को
संज्ञान, लेना ही, पड़ेगा
बहुत दिन,उपेक्षा, नही कर सकते
समुचित ध्यान, देना ही पड़ेगा।

इतने दिन से,आवाज उठ रही थी
पर नजरंदाज, किये बैठे थे
अपनी ही, धुन में, तल्लीन थे सब
हाथ पर हाथ, धरे बैठे थे।

इसी अकर्मण्यता, के दुष्परिणाम
आज झेलने, पड़ रहे हैं
विधर्मियों के बढ़, रहे हौंसले
हम आपस, में ही, लड़ रहे हैं।

देर आए, पर, दुरुस्त आए
कहावत, सत्य होती, दिख रही है
बहु संख्यक, समाज में , एकता
परिवर्तन की कहानी,लिख रही है

हमारी धार्मिक,आस्था, पर चोट
अब और हमें, स्वीकार्य नही
तुष्टिकरण, घुसपैठ की, राजनीति
हमको अब, अंगीकार नही।

उग्रवाद, अलगाववाद पर
अति शीघ्र, नियंत्रण,पाना होगा
देश विरोधी, सारी, ताकतों को
जहन्नुम का रास्ता, दिखाना होगा

यह तो, तय है, कि अपनी, लड़ाई
अन्ततः ख़ुद ही, लड़नी पड़ेगी
सरकार के, सहारे,गर बैठे, रहे तो
निश्चित मानो, फजीहत, ही हो गी

एकजुटता की,यह वर्तमान,झलक
लगातार, गर जो, क़ायम रहेगी
चाहे जिसकी, भी, हो सरकार
आपके सामने, नतमस्तक होगी।

चाहे जिसकी, भी, हो सरकार
आपके समक्ष, नतमस्तक होगी।

— नवल अग्रवाल

नवल किशोर अग्रवाल

इलाहाबाद बैंक से अवकाश प्राप्त पलावा, मुम्बई