संस्कृति की डाल का एक पारम्परिक पुष्प – दीपावली
छत्तीसगढ़ धान का कटोरा तो कहलाता है; साथ ही, लोकपर्वों का एक गढ़ है। यहाँ के तीज-त्यौहार विभिन्न लोक-परम्परा व संस्कृति को समेटे हुए होते हैं। ग्रामीण रस्म-रिवाज, रहन-सहन एवं वेशभूषा की झलक लोकपर्वों में परिलक्षित होती है; चूँकि हमारे ग्राम्यांचल के समस्त लोकपर्व कृषि पर आधारित ही नहीं वरन् निर्भर भी होते हैं। कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में पाँच दिनों तक मनाया जाने वाला प्रकाशपर्व दीपावली इनमें से एक है। पावस ऋतु की विदाई के अवसर पर धान की नई फसल दीवाली के हर्षोल्लास में चार चाँद लगा देती है।
दीपावली के त्यौहार में प्रत्येक व्यक्ति के मन में प्रतीक्षा के साथ–साथ उत्साह की फुलझड़ियाँ प्रस्फुटित होने लगती हैं। इन पाँच दिवसों में अनुपम आनंद की अनुभूति होती है। छत्तीसगढ़ के त्यौहारों में प्रकृति का विशिष्ट योगदान है। इसके बगैर यहाँ त्यौहार मनाने की कल्पना नहीं की जा सकती। समस्त वातावरण को आलोकित करती दीपावली पाँच दिवसों तक मनाई जाती है- धन्वंतरिपूजा, नरक चतुर्दशी, लक्ष्मी पूजा, गोवर्धन पूजा व भाईदूज।
हमारे छत्तीसगढ़ में इन पाँच दिनों का विशेष महत्व होता है। छत्तीसगढ़ के प्रत्येक त्यौहार में प्रकृति का अपना एक विशेष स्थान होता ही है, जिससे प्राप्त धान, आम व कदली की पत्तियाँ, दूर्वा, रंग–बिरंगे पुष्प, फल, श्रीफल, सुपारी, अक्षत, हल्दी आदि पूजन हेतु अनिवार्य वस्तुएं हैं, वहीं धूप, अगरबत्ती, चंदन, रोली, मिठाई, गोरस, सिक्कों का अपना अलग महत्व है।
लक्ष्मी पूजा :– लक्ष्मी पूजा दीपावली के तृतीय दिवस अमावस्या को मनायी जाती है। माँ लक्ष्मी प्रसन्न भाव से भक्तों को आशीर्वाद देने स्वयं पृथ्वी लोक में अवतरित होती हैं। माता लक्ष्मी धन वैभव की देवी है। इस दिन पूजा करने से घरों में समृद्धि आती है। माना जाता है कि माता लक्ष्मी का प्राकट्य समुद्र मंथन से इसी दिन हुआ था इसलिए अमावस्या की रात्रि माता लक्ष्मी जी की अर्चना कर दीपक जलाते हैं।
कृषक नई उपज से प्राप्त धान के चावल से बने व्यंजन को सर्वप्रथम भोग स्वरूप माता लक्ष्मी को अर्पित करते हैं तत्पश्चात भोजन के रूप में ग्रहण किया जाता है।
धान का महत्व :– हमारे छत्तीसगढ़ अंचल में धान का विशेष महत्व है। यहाँ के कृषक धान की कटाई के बाद हर्षोल्लास के साथ झूम उठते हैं। यह जीवन भर की कमाई होती है। अपनी खुशियाँ बाँटने के लिए दीपावली त्यौहार में धान को प्राथमिकता दी जाती है। धान की बालियाँ पूजन स्थानों में रखी जाती हैं। चिड़ियों के भोजन स्वरूप छत पर रखा जाता है। इसे माता लक्ष्मी का प्रिय भोग माना जाता है। धान को गाय के गोबर से थपक कर पूजन कक्ष के बाहर दीवार पर थोप कर गोवर्धन पूजा के दिन घर–घर जाकर राऊत हमेशा परिवार में समृद्धि बने रहने का आशीर्वाद देते हैं।
दीपावली में धान के साथ–साथ प्राकृतिक चीजों का महत्व
धान की बलियाँ :– धान की बालियों को पूजा स्थानों में रखा जाता है। आखिर रखें भी क्यों नहीं; कृषि से ही हमारा जीवन-यापन होता है। अनाज का सम्मान करना हमारा परम कर्तव्य है। अनाज का अनादर करने से जीवन में निर्धनता आती है। इसलिए जैसे ही फसल की कटाई होती है, सबसे पहले माता लक्ष्मी को इसे भोग के रूप में चढ़ाया जाता है। माता लक्ष्मी की पूजा-अर्चना कर उनका आशीर्वाद लेते हैं। धान से ही खील बनाई जाती है, जिसे छत्तीसगढ़ में “लाई” कहा जाता है। माता लक्ष्मी और श्री गणेश जी को इसे अर्पित किया जाता है। धान को कलश में रखने से घर सदैव धन–धान्य से भरा रहता है। इसी तरह धान के साथ–साथ प्रकृति भी हमारे त्यौहार में शामिल होती है।
आम की पत्तियाँ शांति व सुख–समृद्धि का प्रतीक मानी जाती है। इससे भगवान श्रीहरि विष्णु और गणेश जी का सदैव घर में वास होता है। धार्मिक अनुष्ठानों में इसका महत्व बताया गया है। आयुर्वेद के अनुसार इससे कई प्रकार के रोगों से राहत मिलती है।
कदली पत्तियाँ :– वास्तुशास्त्र के अनुसार नकारात्मक ऊर्जा प्रवेश नहीं करती है। घर–परिवार में शांति बनी रहती है। वातावरण शुद्ध रहता है।
सिक्के की पूजा :– घर में पुराने सिक्के की पूजा की जाती है, जिससे उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।
खील–बताशे :– पौराणिक मान्यता के अनुसार माँ लक्ष्मी को खील प्रथम भोग के रूप में चढ़ाई जाती है। खील माँ लक्ष्मी जी का प्रिय भोग है। इससे माँ लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं।
हमारा छत्तीसगढ़ राज्य ही ऐसा राज्य है; जहाँ खलिहानों में धान की पकी बालियाँ नृत्य करती प्रतीत होती है। चहुँओर स्वर्णिम कृषि भूमि लोगों के हृदय को मंत्र मुग्ध कर देती है।
यह त्यौहार ग्रामीण क्षेत्र में ही नहीं; वरन् पूरे भारत देश के लिए उल्लास का त्यौहार है। हर जाति-संप्रदाय के लोग मिलजुल कर इसे मनाते हैं। बड़ी-बड़ी इमारतों में बिजली के रंग–बिरंगी झालर तथा छोटी–छोटी झोपड़ियों में मिट्टी के दीपक आकर्षक लगते हैं।
आज भी लोग ग्रामीण अंचल में पारंपरिक तरीके से त्यौहार मनाते हैं, लेकिन इस त्यौहार की पारंपरिक गतिविधियाॅं गाँवों तक ही सीमित रह गयी हैं। ग्रामवासी गौ माता की पूजा व राऊत नृत्य करते हैं। आज शहरों में यह पर्व परंपरा के नाम पर केवल दीपक और आतिशबाजी तक ही सीमित रह गया है। न धान की बालियाँ; और न ही गौ माता का पालन–पोषण। इसीलिए शहर के कुछ लोग त्यौहार मनाने अपने गाँव जाते हैं और पंच दिवसीय त्यौहार का आनंद लेते हैं। शहर के बच्चे खेत–खलिहान से अंजान होते जा रहे हैं। सिर्फ किताबों और सोशल मीडिया तक ही सिमटते जा रहे हैं। यह स्थिति गंभीर होती जा रही है। आने वाली पीढ़ी के लिए यह त्यौहार सिर्फ आतिशबाजी और नए परिधान तक ही सीमित न हो जाए। इसके लिए नई पीढ़ी को जागृत कर अपने ग्रामीण परिवेश से जुड़ कर रहना सिखाना हमारा परम कर्तव्य है।
— प्रिया देवांगन “प्रियू”