ग़ज़ल
महलों से भी अच्छी लगती अपनी चारदिवारी।
सूखी मिसी रोटी के संग छोटी सी इक यारी।
पैसे से, घमंड से, शोहरत से, कब मिलती है,
भाई बहनों, रिश्तेदारों, यारों से सरदारी।
इतिहास गवाह है मध्य वर्ग से आती एक क्रान्ति,
अक्सर सूखे घास के भीतर उठती है चिंगारी।
सूरज जैसी लौ देती है घर के आंगन भीतर,
स्वर्ग की असली परिभाषा है बच्चे की किलकारी।
अगर करतूत नहीं है अच्छी सब कुछ मिट्टी जैसा,
सूरत, सीरत बेशक होवे प्यारी से भी प्यारी।
बाद में उस की सारी हस्ती पानी पानी कर दी,
तड़क सवेरे ने तो पहले शबनम खूब संवारी।
जीहवा मुंह के भीतर हो तो निभती रिश्तेदारी,
मोह ना जाने प्यास ना जाने मण्डी में व्यापारी।
सरल तथा साधारणता की समतल धरती ऊपर,
बालम तेरी ग़ज़लों भीतर बिम्बों की सरदारी।
— बलविंदर बालम