गीत/नवगीत

पिया ऐसो जिया में समाये गयो रे

सब ने उसको है चाँद कहा,
अधरों को सुर्ख गुलाब कहा,
कुंतल उसकी नागिन सी लगी
सुन कर रह जाती है वह ठगी,
सौंदर्य का क्यों करना वर्णन,
पढ सको तो पढ़ लो उसका मन,
समझो उसके जज्बात जरा,
करती कैसे घर का संचालन।

कभी देखो जाकर रसोईघर,
लोई को रख वो चकले पर,
सस्नेह कोमल हाथों से,
लोई पर फिराती बेलन जब,
अनुराग भरे कोमल मन से
फुलके खिलाती तुमको तब।
बल का जो करती प्रयोग,
रोटी का कर नहीं पाते उपयोग।

वैसे ही स्नेहिल स्पर्शों से,
करोगे जब उसको सिंचित तो,
फिर सोचो ना तुम सखे
घर आँगन कैसे न हो पुलकित?
पुरुषत्व का जो ढ़ाओगे कहर,
यूँही पल में नजरों से जाओगे उतर,
फिर रौनक कहाँ से उस घर में,
अफसोस रहेगा जीवन भर।

कभी सँवारना उसके बिखरे बाल,
देखना पसीने से तरबतर आनन,
व्यस्त जब वह घर के कामों में,
कह देना बस उसे बैठो क्षण दो क्षण,
फिर देखना उसके सुर्ख गाल,
शब्दों से ही वह जाये निहाल,
खुद को तुम में वह देगी ढाल,
सिर्फ इतना समझो जज्बात प्रिय
पढ़ सको तो पढ़ लो उसका हाल।

सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]