कविता

रेडियो की यादें

रेडियो अब बीते जमाने की बात हो गई,
जो बीतने के साथ इतिहास हो गई।
एक जमाना वो भी था
जब आधुनिक सुविधाएं, संसाधनों का अभाव था,
बिजली भी कम ही जगह पर उपलब्ध थी
यातायात के सीमित साधन, छिटपुट सड़कें थीं
आर्थिक स्थिति के हिसाब से
अखबारों की उपलब्धता भी अत्यंत सीमित थी।
तब मनोरंजन और समाचारों के लिए
एक अदद साधन रेडियो था,
वह भी हर घर में नहीं होता था।
क्रिकेट प्रेमियों के लिए रेडियो उनकी जान थी।
हर वर्ग के कार्यक्रम रेडियो पर आते थे
महिलाओं, बच्चों, किसानों, गीत संगीत प्रेमियों
और समाचारों के समय नियत थे,
अपनी सुविधा और पसंद के हिसाब से
अलग अलग तलबगार थे।
अक्सर शाम/ रात को समाचार सुनने
पड़ोसी भी जुट जाते थे,
घर का मालिक हो या न हो
परिवार के सदस्य रेडियो खोलकर बाहर रख देते थे,
बच्चे भी कौतूहल वश घेर कर खड़े हो जाते थे,
शोर मचाने पर इनकी उनकी डांट भी खा जाते थे।
समाचार खत्म, रेडियो बंद, फिर हाल चाल ,दुख, सुख, खेती- किसानी, शादी -ब्याह आदि की चर्चा होती थी
कुछ शिकवा शिकायतें, समाधान भी होते थे
मन के सारे मैल वहीं धुल जाते थे,
फिर सामान्य शिष्टाचार, दुआ, सलाम के बाद
कल फिर मिलने के वादे के साथ
लोग अपने अपने घर चले जाते थे।
ऐसा था रेडियो का वो दौर
जिसकी अब सिर्फ यादें बची हैं
नयी पीढ़ी रेडियो के अनुभव से पूरी तरह अनभिज्ञ है,
उसके लिए तो रेडियो सिर्फ इतिहास की बातें हैं
क्योंकि वे तो जन्म के साथ ही टी. वी. मोबाइल और
आधुनिक गैजेट के साथ समय बिताने लगते हैं,
सिर्फ पुरानी पीढ़ी के लोग और अनुभवी ही
रेडियो की बातें/ कहानियां अनुभव बता पाते हैं
जिसे सुनकर नयी पीढ़ी उकताती है
रेडियो अपनी महिमा, पीड़ा किसको सुनाए
यह आज रेडियो खुद नहीं समझ पाती,
और मन मारकर मायूस होकर रह जाती।

*सुधीर श्रीवास्तव

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