कविता

दिखाओ अपने अंदर का डर

तुम्हारा ये डर जाने का कारोबार,
लगा जबरदस्त,धमाकेदार,
वाकई में डरते बहुत हो,
पल पल मरते बहुत हो,
हथियारों से लैस तुम्हारे इतने रहबर,
क्या नहीं बचा सकते तुम्हें बढ़कर,
लोगों का दिमाग,उनके दिए पैसे,
थेथरई के साथ खा लेते हो कैसे,
फिर मानते आए हो हमें सदा दुश्मन,
फिर भी वसूलने की चेष्टा
हमसे ही हमारा धन,
सुनियोजित रहन सहन,
सुशिक्षित पूरा जीवन,
सुनियोजित प्रशिक्षित संगठन,
जहां समर्पित शत्रुओं का तन मन धन,
जगह जगह विराजित
तुम्हारेआस्थाई बूत,
सर्वज्ञ,शक्तिशाली,सर्वव्यापी मजबूत,
मगर डर किस बात का,
कहते खुद को उच्च जात का,
क्यों घबरा,छटपटा रहे देख
विरोधियों के बढ़ते फैलते जाल,
कहां खो गया भस्म करते,
आकाशवाणी करते,डराते मायाजाल,
युगों युगों से चले आ रहे
अपने विचारधारा,सिद्धियों पर
क्यों भरोसा नहीं कर पा रहे हो,
पिछले चार दिनों की शिक्षा से फैले
दमितों की मानसिक जागृति से
क्यों इस कदर घबरा रहे हो,
क्या खुद के सृजन पर
भरोसा नहीं कर पा रहे हो,
औरों के एकमात्र मुस्काते बुतों को
बार बार खंडित कर जा रहे हो,
जिस तरह डरते हो, डर डर मरते हो,
ये तुम्हारी ओछी हरकत देता है हमें सुकून,
तुम्हारे खतों के अंदर का
पढ़ पा रहे हैं हम सारा मजमून,
तो महानुभावों तोड़ो जितना भी
तोड़ सकते हो हमारी आस्थाई मूर्ति,
तुम्हारे डर बनाये रखने हम
फिर कर लेंगे बुतों की आपूर्ति।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554